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________________ २५८ श्रीमद् राजचन्द्र ___ इसमे भी अनेक भेद है, परन्तु यहाँ तक कदाचित् साधारण स्याद्वाद मानें तो यह जैनके शास्त्रके लिये स्पष्टीकरण हुआ माना जाये । वेदात आदि तो इस कालमे सर्वथा सब कर्मोसे छुडानेके लिये कहते हैं । इसलिये अभी भी आगे जाना होगा । उसके बाद वाक्य सिद्धि होगी। इस तरह वाक्य बोलनेको अपेक्षा रखना उचित है । परन्तु ज्ञान उत्पन्न हुए बिना इस अपेक्षाकी स्मृति रहना सम्भव नहीं है। या तो सत्पुरुषकी कृपासे सिद्धि हो । __ अभी इतना ही । थोडा लिखा बहुत समझें। ऊपर लिखी हुई माथापच्ची भी लिखना पसन्द नही है। शक्करके श्रीफलकी सभीने प्रशंसा की है, परन्तु यहाँ तो अमृतका नारियलका पूरा वृक्ष है । तो यह कहाँसे पसन्द आये ? नापसन्द भी नही किया जाता। अन्तमे आज, कल और सदाके लिये यही कहना है कि इसका सग होनेके बाद सर्वथा निर्भय रहना सीखें। आपको यह वाक्य कैसा लगता है ? वि० रायचद। १८१ बबई, मगसिर सुदी २, शनि, १९४७ सुज्ञ भाई छोटालाल, भाई त्रिभोवनका और आपका पत्र मिला | ओर भाई अबालालका पत्र मिला | अभी तो आपका लिखा हुआ पढनेकी इच्छा रखता हूँ। किसी प्रसगसे प्रवृत्ति (आत्माको) होगी तो मै भी लिखता रहूँगा। आप जिस समय समतामे हो उस समय अपनी अतरकी उमियोके विषयमे लिखियेगा। यहाँ तीनो काल समान है। प्राप्त व्यवहारके प्रति असमता नही है, और उसका त्याग करनेकी इच्छा रखी है, परन्तु पूर्व प्रकृतिको दूर किये बिना छुटकारा नही है। कालको दुषमता • से यह प्रवृत्तिमार्ग बहुतसे जीवोको सत्के दर्शन करनेसे रोकता है। आप सबसे अनुरोध है कि इस आत्माके सबंधमे दूसरोंसे कोई बातचीत न करें। वि० रायचंद । १८२ बबई, मगसिर सुदी १३, बुध, १९४७ आपका कृपापत्र कल मिला | पढकर परम सतोष प्राप्त हुआ। आप हृदयके जो जो उद्गार लिखते हैं, उन सबको पढकर आपकी योग्यताके लिये प्रसन्न होता हूँ, परम प्रसन्नता होती है, और वारंवार सत्युगका स्मरण होता है। आप भी जानते हैं कि इस कालमे मनुष्योंके मन मायिक सपत्तिकी इच्छावाले हो गये हैं। कोई विरल मनुष्य निर्वाण-मार्गकी दृढ इच्छावाला रहना सम्भव है, अथवा वह इच्छा किसी एकको ही सत्पुरुषके चरणसेवनसे प्राप्त होती है ऐसा है। महाधकारवाले इस कालमे हमारा जन्म किसी कारणसे ही हुआ होगा, यह नि.शक है, परन्तु क्या करे ? वह सपूर्णतासे तो वह सुझाये तब हो सकता है। वि० रायचद। १८३ बबई, मगसिर सुदी १४, १९४७ आनन्दमूर्ति सत्स्वरूपको अभेदभावसे त्रिकाल नमस्कार करता हूँ। परमजिज्ञासासे भरपूर आपका धर्मपत्र परसो मिला । पढकर सतोष हुआ। . उसमे जो जो इच्छायें बतायी हैं, वे सब कल्याणकारक ही है, परन्तु उन इच्छाओकी सब प्रकारको स्फुरणा तो सच्चे पुरुषके चरणकमलकी सेवामे निहित है। और अनेक प्रकारसे सत्सगमे निहित है । यह सब अनन्त ज्ञानियोका सम्मत किया हुआ निशंक वाक्य आपको लिखा है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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