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________________ ८९४ अनारंभ - सावद्य व्यापार रहित, जीवको उपद्रव न करना, निष्पाप | अनारंभी - पाप न करनेवाला । श्रीमद राजचन्द्र अनिमेष - स्थिर दृष्टि निमेषरहित टकटकीके साथ देखना | अनुकम्पा - दुखी जीवोपर करुणा । (आक ५८, १३५) अनुग्रह - दया, उपकार, कृपा । अनुचर — सेवक । अनुपचरित -- अनुभवमें आने योग्य विशेष सम्बघसहित (व्यवहार) | ( आक ४९३) अनुप्रेक्षा — भावना, विचारणा, स्वाध्यायका एक प्रकार । अनुभव -- प्रत्यक्षज्ञान, वेदन । "वस्तुविचारत घ्यावते मन पावे विश्राम, रस स्वादत सुख ऊपजे, अनुभव याको नाम । " - श्री बनारसीदास । अनुष्ठान - धार्मिक आचार, क्रिया । अनेकांत - अनवधर्मात्मक वस्तुकी स्वीकृति, जो केवल एक दृष्टिरूप न हो । अनेकांतवाद - सापेक्षरूपसे एक पदार्थके अनेक धर्मोसे अमुक धर्मको कहनेवाली वचन पद्धति । अन्योक्ति -- वह अलकार जिसमे अर्थसाधर्म्यके अनुसार वर्णित वस्तुओके अलावा दूसरी वस्तुओपर घटाया जाय । कटाक्षरूप वचन । अन्योन्य – परस्पर | अन्वय — एकके सद्भावमें दूसरेका अवश्य होना, परस्पर सम्बन्ध | अपकर्ष - पतन, कम होना । अप्काय - पानी ही जिसका शरीर है ऐसे जीव । अपरिग्रहव्रत — परिग्रहत्यागकी प्रतिज्ञा । अपवर्ग-मोक्ष | अपवाद - नियमोमें छूट, निन्दा | अपरिच्छेद - यथार्थ, सम्पूर्ण | अपरिणामी - जो परिणमनको प्राप्त न हो । अपलक्षण —दोष । अपेक्षा - इच्छा, अभिलापा । अप्रतिबद्ध - आसक्तिरहित । अप्रमत्त गुणस्थान - सातवाँ गुणस्थान । अप्रमत्तरूपसे आचरणमें स्थिति । ( पृ० ८४० ) " अप्रभावी - आत्मदशा में जागृति रखनेवाला । अप्रशस्त बुरा, अशुभ | अबध परिणाम — जिन परिणामोंसे बध न हो । रागद्वेषरहित परिणाम | अबोधता - अज्ञानता । अभक्ष्य - न खाने योग्य | अभयदान ---रक्षण देना, जीवोको बचाना । अभव्य - जिसे आत्मस्वरूपकी प्राप्ति न हो सके ऐसा जीव । अभाव - क्षय, जिसका अस्तित्व न I (आक६७४) अभिधेय - प्रतिपादन करने योग्य । अभिनिवेश -आसक्ति, आग्रह, हठ । ( आक ६७७ लौकिक अभिनिवेश) अभिमत - सम्मत । अभिवंदन - नमस्कार । अभिसंधिवीर्य-बुद्धि या आशयपूर्वक की गई क्रियाके रूपमें परिणमनेवाला वीर्य, आत्माकी प्रेरणासे वीर्यका प्रवर्तन, वीर्यका एक प्रकार । अभ्यंतर - भीतरका । अभ्यतरमोहनी - वासना, राग-द्वेष । (पुष्पमाला - ६६) अभ्यास - मुहावरा, टेव, अध्ययन । अमर - देव, आत्मा । अमाप - असीम, अपरिमित । अमूर्तिक – जिसमें रूप, रस, गंध और स्पर्श नही हैं । निराकार | अयोग - योगका अभाव, मन, वचन, कायारूप योगका अभाव, सत्पुरुष के साथ सयोगका नही होना । अराग-रागरहित दशा । अरिहत — केवली भगवान । अरूपी - जिसमें रूप, रस, गघ और स्पर्शं ये पुद्गल के गुण हो । अर्थ पर्याय- प्रदेशत्व गुणके सिवाय अन्य समस्त गुणोकी अवस्था । (देखें जैन सिद्धात प्रवेशिका ) अर्थातर - दूसरा आशय या तात्पर्यं । अर्धदग्ध - अधूरे ज्ञानवाला । ज्ञानी जैसा समझदार भी नही और अज्ञानी जैसा जिज्ञासु भी नही । अहंत—देखें अरिहत ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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