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श्री मद् राजचन्द्र यथार्थ प्रतीत होता है या कुछ दूसरा अर्थ प्रतीत होता है ? सर्व देशकालादिका ज्ञान केवलज्ञानीको होता है, ऐसा जिनागमका अभी रूढि-अर्थ है, अन्य दर्शनोमे ऐसा मुख्यार्थ नहीं है, और जिनागमसे वैसा मुख्यार्थ लोगोमे अभी प्रचलित है। वही केवलज्ञानका अर्थ हो तो उसमे बहुतसे विरोध दिखायी देते हैं। जो सब यहाँ नही लिखे जा सकें है। तथा जो विरोध लिखे हैं वे भी विशेष विस्तारसे नही लिखे जा सके हैं, क्योकि वे यथावसर लिखने योग्य लगते है। जो लिखा है वह उपकारदृष्टिसे लिखा है, यह ध्यान रखें।
योगधारिता अर्थात् मन, वचन और कायासहित स्थिति होनेसे आहारादिके लिये प्रवृत्ति होते हुए उपयोगातर हो जानेसे उसमे कुछ भी वृत्तिका अर्थात् उपयोगका निरोध होता है । एक समयमे किसीको दो उपयोग नही रहते ऐसा सिद्धात है, तब आहारादिकी प्रवृत्तिके उपयोगमे रहते हुए केवलज्ञानीका उपयोग केवलज्ञानके ज्ञेयके प्रति नही रहता, और यदि ऐसा हो तो केवलज्ञानको जो अप्रतिहत कहा है, वह प्रतिहत हुआ माना जाये । यहाँ कदाचित् ऐसा समाधान करें कि जैसे दर्पणमे पदार्थ प्रतिबिंबित होते हैं वैसे केवलज्ञानमे सर्व देशकाल प्रतिबिंबित होते है। केवलज्ञानी उनमे उपयोग देकर जानते है यह बात नही है, सहजस्वभावसे ही उसमे पदार्थ प्रतिभासित हुआ करते हैं, इसलिये आहारादिमे उपयोग रहते हुए भी सहजस्वभावसे प्रतिभासित केवलज्ञानका अस्तित्व यथार्थ है, तो यहाँ प्रश्न होना सम्भव है कि 'दर्पणमे प्रतिभासित पदार्थका ज्ञान दर्पणको नही होता, और यहाँ तो केवलज्ञानीको उनका ज्ञान होता है, ऐसा कहा है, तथा उपयोगके सिवाय आत्माका दूसरा ऐसा कौनसा स्वरूप है कि आहारादिमे उपयोगकी प्रवृत्ति हो तब केवलज्ञानमे प्रतिभासित होने योग्य ज्ञेयको आत्मा उससे जाने ?'
सर्व देशकाल आदिका ज्ञान जिस केवलीको हो वह केवली 'सिद्ध' को कहे तो सम्भवित होने योग्य माना जाये, क्योकि उसे योगधारिता नही कही है। इसमे भी प्रश्न हो सकता है, तथापि योगधारीकी अपेक्षासे सिद्धमे वैसे केवलज्ञानकी मान्यता हो तो योगरहितत्व होनेसे उसमे सम्भवित हो सकता है, इतना प्रतिपादन करनेके लिये लिखा है, सिद्धको वैसा ज्ञान होता ही है ऐसे अर्थका प्रतिपादन करनेके लिये नही लिखा। यद्यपि जिनागमके रूढि-अर्थके अनुसार देखनेसे तो 'देहधारी केवली' और 'सिद्ध' मे केवलज्ञानका भेद नही होता, दोनोको सर्व देशकाल आदिका सम्पूर्ण ज्ञान होता है यह रूढि-अर्थ है। दूसरी अपेक्षासे जिनागम देखनेसे भिन्नरूपसे दिखायो देता है । जिनागममे इस प्रकार पाठार्थ देखनेमे आते है -
"केवलज्ञान दो प्रकारसे कहा है। वह इस तरह-'सयोगी भवस्थ केवलज्ञान', 'अयोगी भवस्थ केवलज्ञान' । सयोगी केवलज्ञान दो प्रकारसे कहा है, वह इस तरह-प्रथम समय अर्थात् उत्पन्न होनेके समयका सयोगी केवलज्ञान, अप्रथम समय अर्थात् अयोगो होनेके प्रवेश समयसे पहलेका केवलज्ञान । इसी तरह अयोगी भवस्थ केवलज्ञान दो प्रकारसे कहा है, वह इस तरह-प्रथम समय केवलज्ञान और अप्रथम अर्थात् सिद्ध होनेसे पहलेके अतिम समयका केवलज्ञान ।"
इत्यादि प्रकारसे केवलज्ञानके भेद जिनागममे कहे हैं, उसका परमार्थ क्या होना चाहिये ? कदाचित ऐसा समाधान करें कि बाह्य कारणकी अपेक्षासे केवलज्ञानके भेद बताये हैं, तो वहाँ यो शका करना सभव है कि 'कुछ भी पुरुषार्थ सिद्ध न होता हो और जिसमे विकल्पका अवकाश न हो उसमे भेद करनेकी प्रवृत्ति ज्ञानीके वचनमे सम्भव नही है। प्रथम समय केवलज्ञान और अप्रथम समय केवलज्ञान ऐसे,भेद करते हुए केवलज्ञानका तारतम्य बढता घटता हो तो वह भेद सम्भव है, परन्तु तारतम्यमे,वैसा नहीं है, तब भेद करनेका क्या कारण ?' इत्यादि प्रश्न यहाँ सम्भव हैं, उनपर और पहलेके पत्रपर यथाशक्ति विचार कर्तव्य है।