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________________ ५१५ २९ वो वर्ष समूहरूपसे मालूम नही होता । एक समय रहकर लयको प्राप्त होता है, उसके बाद दूसरा समय उत्पन्न होता है । वह समय द्रव्यकी वर्तनाका सूक्ष्मातिसूक्ष्म भाग है। __ सर्वज्ञको सर्व कालका ज्ञान होता है, ऐसा जो कहा है, उसका मुख्य अर्थ तो यह है कि पचास्तिकाय द्रव्यपर्यायात्मकरूपसे उन्हे ज्ञानगोचर होता है, और सर्व पर्यायका जो ज्ञान है वही सर्व कालका ज्ञान कहा गया है। एक समयमे सर्वज्ञ भी एक समयको ही वर्तमान देखते है, और भूतकाल या भाविकालको विद्यमान नही देखते, यदि उसे भी विद्यमान देखें तो वह भी वर्तमानकाल ही कहा जायेगा । सर्वज्ञ भूतकालको बीत चुका है इस रूपसे और भाविकालको आगे ऐसा होगा, ऐसा देखते है । भूतकाल द्रव्यमे समा गया है, और भाविकाल सत्तारूपसे रहा है, दोनोमेसे एक भी वर्तमानरूपसे नही है, मात्र एक समयरूप ऐसा वर्तमानकाल ही विद्यमान है, इसलिये सर्वज्ञको ज्ञानमे भी उसी प्रकारसे भासमान होता है। एक घडा अभी देखा हो, वह उसके बाद दूसरे समयमे नाशको प्राप्त हो गया, तन घडारूपरो विद्यमान नही है, परन्तु देखनेवालेको वह घडा जैसा था वैसा ज्ञानमे भासमान होता है, इसी तरह अभी एक मिट्टीका पिड पडा है, उसमेसे थोड़ा समय बीतनेपर एक घड़ा उत्पन्न होगा, ऐसा भी ज्ञानमे भासित हो सकता है, तथापि मिट्टीका पिंड वर्तमानमे कुछ घडारूपसे तो नहीं रहता। इसी तरह एक समयमे सर्वज्ञको त्रिकालज्ञान होनेपर भी वर्तमान समय तो एक ही है। सूर्यके कारण जो दिन-रातरूप काल समझमे आता है वह व्यवहारकाल है; क्योकि सूर्य स्वाभाविक द्रव्य नही है । दिगम्बर, कालके असख्यात अणु मानते है, परन्तु उनका एक दूसरेके साथ सधान है, ऐसा उनका अभिप्राय नही है, और इसलिये कालको अस्तिकायरूपसे नही माना। प्रत्यक्ष सत्समागममे भक्ति, वैराग्य आदि दृढ साधनसहित मुमुक्षुको सद्गुरुकी आज्ञासे द्रव्यानुयोग विचारणीय है। अभिनदनजिनकी श्री देवचदजीकृत स्तुतिका पद लिखकर अर्थ पुछवाया है, उसमे 'पुद्गळअनुभवत्यागथी, करवी ज शु परतीत हो,' ऐसा लिखा है, वैसा मूलमे नही है। 'पुद्गळअनुभवत्यागथी, करवी जसु परतीत हो, ऐसा मूल पद है। अर्थात् वर्ण, गन्ध आदि पुद्गल-गुणके अनुभवका अर्थात् रसका त्याग करनेसे, उसके प्रति उदासीन होनेसे, 'जसु' अर्थात् जिसकी (आत्माकी) प्रतीति होती है, ऐसा अर्थ है । ६९९ बबई, श्रावण, १९५२ पचास्तिकायका स्वरूप सक्षेपमे कहा है - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पाँच अस्तिकाय कहे जाते है। अस्तिकाय अर्थात् प्रदेशसमूहात्मक वस्तु । एक परमाणुके प्रमाणवाली अमूर्त वस्तुके भागकी 'प्रदेश' ऐसी सज्ञा है । जो वस्तु अनेक प्रदेशात्मक हो वह 'अस्तिकाय' कहलाती है। एक जीव असख्यातप्रदेशप्रमाण है। पुद्गल परमाणु यद्यपि एकप्रदेशात्मक है, परन्तु दो परमाणुसे लेकर असख्यात, अनत परमाणु एकत्र हो सकते हैं । इस तरह उसमे परस्पर मिलनेकी शक्ति रहनेसे वह अनेक प्रदेशात्मकता प्राप्त कर सकता है, जिससे वह भी अस्तिकाय कहने योग्य है । 'धर्मद्रव्य' असख्यातप्रदेशप्रमाण, 'अधर्मद्रव्य' असख्यातप्रदेशप्रमाण, 'आकाशद्रव्य' अनतप्रदेशप्रमाण होनेसे वे भी 'अस्तिकाय' हैं । इस तरह पॉच अस्तिकाय है। जिन पांच अस्तिकाय की एकरूपतासे इस 'लोक' की उत्पत्ति है, अर्थात् 'लोक' पचास्तिकायमय है। प्रत्येक प्रत्येक जीव असख्यातप्रदेशप्रमाण है। वे जीव अनत हैं । एक परमाणु जैसे अनत परमाण हैं। दो परमाणुओके एकत्र मिलनेसे द्वयणुकस्कध होता है, जो अनंत है। इसी तरह तीन परमाणओके
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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