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________________ १०४ श्रीमद् राजचन्द्र कहनेवाले उसके यथार्थ स्वरूपको नहीं जानते और वे इन दोनोके भेदको श्रेणिबद्ध नही कह सके, इसीसे उनकी सर्वज्ञताकी कमी सिद्ध होती है। सद्देवतत्त्वमे कहे हुए अठारह दूपणोसे वे धर्ममतस्थापक रहित नहीं थे ऐसा उनके रचे हुए चरित्रोसे भी तत्त्वको दृष्टिसे दिखायी देता है। कितने ही मतोमे हिंसा, अब्रह्मचर्य इत्यादि अपवित्र विपयोका उपदेश है वे तो सहज ही अपूर्ण और सरागी द्वारा स्थापित दिखायी देते है। इनमेसे किसीने सर्वव्यापक मोक्ष, किसीने शून्यरूप मोक्ष, किसीने साकार मोक्ष, किसीने अमुक काल तक रहकर पतित होनेरूप मोक्ष माना है, परन्तु इनमेसे उनकी कोई भी बात सप्रमाण नही हो सकती । १"उनके अपूर्ण विचारोका खडन वस्तुत देखने जैसा है और वह निग्रंथ आचार्योंके रचे हुए शास्त्रोमे मिल सकेगा।' वेदके अतिरिक्त दूसरे मतोके प्रवर्तक, उनके चरित्र, विचार इत्यादि पढनेसे वे अपूर्ण है ऐसा मालूम हो जाता है। "वेदने प्रवर्तकोको भिन्न-भिन्न करके वेधडकतासे वातको मममे डालकर गभीर डौल भी किया है। फिर भी उसके पुष्कल मतोको पढनेसे यह भी अपूर्ण और एकातिक मालम हो जायेगा।' .. जिस पूर्ण दर्शनके विषयमे यहाँ कहना है वह जैन अर्थात् नीरागीके स्थापन किये हुए दर्शनके विषयमे है । इसके बोधदाता मर्वज्ञ और सर्वदर्शी थे । कालभेद है तो भी यह बात सैद्धातिक प्रतीत होती है। दया, ब्रह्मचर्य, शील, विवेक, वैराग्य, ज्ञान, क्रिया आदिका इनके जैसा पूर्ण वर्णन एकने भी नही किया है। उसके साथ शुद्ध आत्मज्ञान, उसकी कोटियाँ, जीवके च्यवन, जन्म, गति, विगति, योनिद्वार, प्रदेश, काल और उनके स्वरूपके विषयमे ऐसा सूक्ष्म बोध है कि जिससे उनकी सर्वज्ञताकी नि शंकता होती है। कालभेदसे परम्पराम्नायसे केवलज्ञानादि ज्ञान देखनेमे नही आते, फिर भी जो जो जिनेश्वरके रहे हुए सैद्धातिक वचन हैं वे अखड है। उनके कतिपय सिद्धात ऐसे सूक्ष्म हैं कि जिनमेसे एक एकका विचार करते हुए सारी जिंदगी बोत जाये ऐसा है । आगे इस सवधमे बहुत कुछ कहना है । जिनेश्वरके कहे हुए धर्मतत्त्वोसे किसी भी प्राणीको लेशमात्र खेद उत्पन्न नहीं होता। मर्व आत्माओको रक्षा और सर्वात्मशक्तिका प्रकाश इसमें निहित है । इन भेदोको पढनेसे, समझनेसे और इन पर अति अति सूक्ष्म विचार करनेसे आत्मशक्ति प्रकाश पाकर जैनदर्शनकी सर्वज्ञताके लिये, सर्वोत्कृष्टताके लिये हाँ कहलवाती है। बहुत मननपूर्वक सभी धर्ममतोको जानकर फिर तुलना करनेवालेको यह कथन अवश्य सत्य सिद्ध होगा। इस सर्वज्ञदर्शनके मूल तत्त्वो और दूसरे मतोके मूल तत्त्वोके विषयमे यहाँ विशेप कह सकने जितनो जगह नही है। शिक्षापाठ ६१ सुखसंबधी विचार--भाग १ एक ब्राह्मण दरिद्रावस्थासे बहुत पीडित था। उसने तग आकर आखिर देवकी उपासना करके लक्ष्मी प्राप्त करनेका निश्चय किया। स्वय विद्वान होनेसे उसने उपासना करनेसे पहले विचार किया कि कदाचित् कोई देव तो सतुष्ट होगा, परन्तु फिर उससे कौन-सा सुख मांगना ? तप करनेके बाद माँगनेमे कुछ सूझे नही, अथवा न्यूनाधिक सूझे तो किया हुआ तप भी निरर्थक हो जाये, इसलिये एक बार सारे देशमे प्रवास करूँ । ससारके महापुरुपोके धाम, वैभव और सुख देखू। ऐसा निश्चय करके वह प्रवासमे निकल पडा। भारतके जो जो रमणीय और ऋद्धिमान शहर थे वे देखे । युक्ति-प्रयुक्तिसे राजाधिराजोके अन्त.पुर सुख और वैभव देखे । श्रीमानोके आवास, कारोवार, वाग-बगीचे और कुटुम्ब परिवार देखे, द्वि० आ० पाठा०-२ 'उनके विचारोकी पूर्णता नि स्पृही तत्त्ववेत्ताओने बतायी है उसे यथास्थित जानना योग्य है ।' २ 'वर्तमानमें जो वेद हैं वे बहुत प्राचीन ग्रथ हैं, इसलिये उस मतकी प्राचीनता है। परतु वे भी हिंसाके कारण दूपित होनेसे अपूर्ण है, और सरागी के वाक्य हैं, ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है ।'
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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