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आत्मा
नित्य
अनित्य
परिणामी
अपरिणामी
साक्षी
साक्षी - कर्ता
वेदांत
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11
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श्रीमद राजचन्द्र
३५
जैन : सांख्य योग
11.
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वेदांत कहता है कि आत्मा एक ही हैं ।
जिन कहता है कि आत्मा अनंत है । जाति एक है । सांख्य भी ऐसा ही कहता है । पतंजलि भी ऐसा ही कहता है !
वेदांत कहता है कि यह समस्त विश्व-वंध्यापुत्रवत् है जिन कहता है कि यह समस्त विश्व शाश्वत है ।
पतंजलि कहता है कि नित्यमुक्त ऐसा एक ईश्वर होना चाहिये । सांख्य उसका निषेध करता है। जिन उसका निषेध करता है ।
नैयायिक
"
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[ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ८० ]
वौद्ध
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३६
सांख्य कहता है कि बुद्धि जड़ है। पतंजलि और वेदांत ऐसा ही कहते हैं ।
जिन कहता है कि बुद्धि चेतन है ।
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[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ८१]
३७
[संस्मरण-पोथी, १, पृष्ठ ८७]
श्रीमान महावीरस्वामी जैसोंने अप्रसिद्ध पद रखकर गृहवासका वेदन किया, गृहवाससे निवृत्त होनेपर भी साढ़े बारह वर्ष जितने दीर्घकाल तक मौन रखा । निद्रा छोड़कर विषम परिवह सहन किये, इसका क्या हेतु है ?
और यह जीव इस तरह वर्तन करता है तथा इस तरह कहता है, इसका हेतु क्या है ?
• जो पुरुष सद्गुरुकी उपासनाके विना अपनी कल्पनासे आत्मस्वरूपका निर्धार करे वह मात्र अपने स्वच्छंद के उदयका वेदन करता है ऐसा विचार करना योग्य है ।
जो जीव सत्पुरुष गुणका विचार न करे, और अपनी कल्पनाके आश्रयसे वर्तन करें, वह जीव सहजमात्रमें भववृद्धि उत्पन्न करता है, क्योंकि अमर होने के लिये जहर पीता है ।
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[संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ८९ ]
श्री तीर्थंकरने सर्वसंगको महास्रवरूप कहा है, सो सत्य है ।
ऐसी मिश्र गुणस्थानक जैसी स्थिति कब तक रखना ? जो वात चित्त में नहीं, उसे करना, और जो चित्तमें है उसमें उदास रहना ऐसा व्यवहार किस तरह हो सकता हैं ?...
वैश्यवेपसे और निर्ग्रथभाव से रहते हुए कोटि-कोटि विचार हुआ करते हैं ।