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________________ आभ्यंतर परिणाम अवलोकन - संस्मरणपोथी १ - Q ८१९ वेष और उस वेषसंबंधी व्यवहार देखकर लोकदृष्टि वैसा माने यह सच है, और निग्रंथभावमें ता हुआ चित्त उस व्यवहारमें यथार्थं प्रवृत्ति न कर सके यह भी सत्य है, जिसके लिये इन दो प्रकारकी - स्थिति से प्रवृत्ति नहीं की जा सकती, क्योंकि प्रथम प्रकारसे प्रवृत्ति करते हुए निग्रंथभावसे उदास ना पड़े तो ही यथार्थ व्यवहारको रक्षा हो सकती है, और निर्ग्रथभावसे रहें तो फिर वह व्यवहार चाहे ना हो उसकी उपेक्षा करना योग्य है । यदि उपेक्षा न की जाये तो निर्ग्रन्थभावकी हानि हुए बिना 2 रहेगी [संस्मरण-पोथी, १, पृष्ठ ९० ] Plese उस व्यवहारका त्याग किये बिना अथवा अत्यन्त अल्प किये बिना -निर्ग्रन्थता यथार्थ नहीं रहती, र उदयरूप होनेसे व्यवहारका त्याग नहीं किया जाता ...ये सर्व विभाव-योग दूर हुए बिना हमारा चित्तं दूसरे किसी उपाय से संतोष प्राप्त करे, ऐसा हीं लगता: । . i E वह विभावयोग दो प्रकारका है - एक पूर्वमें निष्पन्न किया हुआ उदयस्वरूप, और दूसरा आत्मद्धिसे रागसहित किया जानेवाला भावस्वरूप | आत्मभावसे, विभावसम्बन्धी योगकी उपेक्षा हो श्रेयभूत लगती है । नित्य उसका विचार किया नाता है, उस विभावरूपसे रहनेवाले आत्मभावको बहुत परिक्षण किया है, और अभी भी वही परिणति दहती है। P उस संपूर्ण विभावयोगको निवृत्त किये बिना चित्त विश्रांतिको प्राप्त हो ऐसा नहीं लगता, और अभी तो उस कारणसे विशेष क्लेशका वेदन करना पड़ता है, क्योंकि उदय विभावक्रियाका है और इच्छा आत्मभावमें स्थिति करनेकी है । " यज्ञ १ 1 [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ९१] ....... फिर भी ऐसा रहता है कि यदि उदय की विशेषकाल तक प्रवृत्ति रहे तो आत्मभाव विशेष चंचल परिणामको प्राप्त होगा; क्योंकि आत्मभावके विशेष संधान करनेका अवकाश उदयकी प्रवृत्तिके कारण प्राप्त नहीं हो सकेगा, और इसलिये वह आत्मभाव कुछ भी अजागृतावस्थाको प्राप्त हो जायेगा । जो आत्मभाव उत्पन्न हुआ है, उस आत्मभावपर यदि विशेष ध्यान दिया जाये तो अल्प कालमें उसकी विशेष वृद्धि हो, और विशेष जागृतावस्था उत्पन्न हो, और थोड़े समयमें हितकारी उग्र आत्मदशा प्रगट हो, और यदि उदयकी स्थिति के अनुसार उदयका काल रहने देनेका विचार किया जाये तो अब आत्मशिथिलता होनेका प्रसंग आयेगा, ऐसा लगता है; क्योंकि दीर्घकालका आत्मभाव होनेसे अब तक · चाहे जैसा उदयबल होनेपर भी वह आत्मभाव नष्ट नहीं हुआ, तो भी कुछ कुछ उसकी अजागृतावस्था होने देनेका वक्त आया है; ऐसा होनेपर भी अब केवल उदयपर ध्यान दिया जायेगा तो शिथिलभाव उत्पन्न [ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ९२ ] होगा । ज्ञानीपुरुष उदयवंश देहादि धर्मकी निवृत्ति करते हैं । इस तरह प्रवृत्ति की हो तो आत्मभाव नष्ट नहीं होना चाहिये; इसलिये इस बात को ध्यान में रखकर उदयका वेदन करना योग्य है. ऐसा विचार भी अभी योग्य नहीं है, क्योंकि ज्ञानके तारतम्यको अपेक्षा उदयबल बढ़ता हुआ देखने में आये तो जरूर वहाँ ज्ञानीको भी जागृतदशा करना योग्य है, ऐसा श्री सर्वज्ञने कहा है । अत्यंत दुषमकाल है इस कारण और हतपुण्य लोगोंने भरतक्षेत्रको घेरा है इस कारण, परम सत्संग, सत्संग या सरलपरिणामी जीवोंका समागम भी दुर्लभ है, ऐसा समझकर जैसे अल्प कालमें सावधान हुआ जाये, वैसे करना योग्य है ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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