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________________ ८२० . ....: : श्रीमद राजचन्द्र .. . . ३९ . . . . . [संस्मरण-पोथी १; पृष्ठ ९३] मौनदशा धारण करनी? ... व्यवहारका उदय ऐसा है कि वह धारण की हुई. दशा लोगोंके लिये कषायका निमित्त हो, और व्यवहारको प्रवृत्ति न हो सके। ....... ..... . . . . . . . . . . . . . ...: तब क्या उस व्यवहारको निवृत्त करना ? :: : ... ....... .. ... ... .. यह भी विचार करनेसे होना कठिन लगता है, क्योंकि वैसी कुछ स्थितिका वेदन करनेका चित्त रहा करता है । फिर चाहे वह शिथिलतासे, उदयसे या परेच्छासे या सर्वज्ञदृष्ट होनेसे हो । ऐसा होनेपर भी अल्पकालमें इस व्यवहारको संक्षेप करनेका. चित्त है। इस व्यवहारका संक्षेप किस प्रकारसे किया जा सकेगा? . क्योंकि उसका विस्तार विशेषरूपसे देखनेमें आता है। व्यापाररूपसे, कुटुंबप्रतिबंधसे, युवावस्थाप्रतिबंधसे, दयास्वरूपसे, विकारस्वरूपसे, उदयस्वरूपसे, इत्यादि कारणोंसे वह व्यवहार विस्ताररूपसे दिखाई देता है। -: संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ९४] .: मैं ऐसा जानता हूँ कि अनन्तकालसे अप्राप्तवत् : ऐसा आत्मस्वरूप केवलज्ञान-केवलदर्शनस्वरूपसे अंतमुहर्तमें उत्पन्न किया है, तो फिर वर्ष-छ: मासके ..कालंमें इतना यह व्यवहार क्यों निवृत्त न हो सके ? मात्र जागृतिके उपयोगांतरसे उसकी स्थिति है, और उस उपयोगके बलका नित्य विचार करनेसे अल्प कालमें यह व्यवहार निवृत्त हो सकने योग्य है। तो भी इसकी किस तरहसे निवृत्ति करनी, यह अभी विशेषरूपसे मुझे विचार करना योग्य है ऐसा मानता हूँ, क्योंकि वीर्यमें कुछ भी मंद दशा रहती है। उस मंद दशाका हेतु क्या है ? उदयबलसे प्राप्त हुआ परिचय मात्र परिचय है, यह कहने में कोई बाधा है ? उस परिचयमें विशेष अरुचि रहती है। यह होनेपर भी वह परिचय करना पड़ा है। यह परिचयका दोष नहीं कहा जा सकता, . परन्तु निज दोष कहा जा सकता है । अरुचि होनेसे इच्छारूप दोष नं कहकर उदयरूप दोष कहा है। - .. . .४० . ... ... [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ९६] वहुत विचार करनेसे नीचेका समाधान होता है। ... . एकांत द्रव्य, एकांत क्षेत्र, एकांत काल और एकांत भावरूप संयमका आराधन, किये बिना चित्तको शांति नहीं होगी ऐसा लगता है। ऐसा निश्चय रहता है। . ..वह योग अभी कुछ दूर होना संभव है, क्योंकि उदयबल देखते हुए उसके निवृत्त होनेमें कुछ विशेष समय लगेगा। . . [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ९७] ' 'माघ सुदी ७ शनिवार, विक्रम संवत् १९५१ के बाद डेढ़ वर्षसे अधिक स्थिति नहीं। .. ओर उतने काल में उसके बाद जीवनकाल किस तरह भोगना इसका विचार किया जायेगा। ... ..४२ . . . [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ९८] ' 'अवि अप्पणो वि देहमि नायरंति ममाइयं ॥ ४१ १. भावार्थ-(तत्त्वज्ञानी) अपनी देहमें भी ममत्व नहीं करते।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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