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________________ ३०० श्रीमद् राजचन्द्र प्रभु प्रभु लय लागी नहीं, पज्यो न सवगुरु पाय । दौठा नहि निज दोष तो, तरीए कोण उपाय ?॥१८॥ अधमाधम अधिको पतित, सकल जगतमां हंय।। ए निश्चय आव्या विना, साधन करशे शुय? ॥१९॥ पडी पडी तुज पदपंकजे, फरी फरी मागुं एज। सद्गुरु सन्त स्वरूप तुज, ए दृढ़ता करी दे ज ॥२०॥ २६५ राळज, भादो सुदी ८, १९४७ ॐ सत् ( तोटक छद) + यमनियम संजम आप कियो, पुनि त्याग बिराग अथाग लह्यो। वनवास लियो मुख मौन रह्यो, दृढ आसन पद्म लगाय दियो ॥१॥ मन पौन निरोध स्वबोध कियो, हठजोग प्रयोग सु तार भयो। जप भेद जपे तप त्यौंहि तपे, उरसेंहि उदासी लही सबपें ॥२॥ सब शास्त्रनके नय धारि हिये, मत मंडन खंडन भेद लिये। वह साधन बार अनन्त कियो, तदपि कछु हाथ हजुन पर्यो ॥३॥ अब क्यों न विचारत है मनसें, कछु और रहा उन साधनसे ?। बिन सद्गुरु कोय न भेद लहे, मुख आगल हैं कह बात कहे ? ॥४॥ करुना हम पावत हे तुमको, वह बात रही सुगुरु गमकी। पलमे प्रगटे मुख आगलसें, जब सद्गुरुत्तर्न सुप्रेम बसें ॥५॥ तनसें, मनसें, धनसें, सबसें, गुरुदेवकी आन स्वमात्म बसें। तव कारज सिद्ध बने अपनो, रस अमृत पावहि प्रेम घनो ॥६॥ वह सत्य सुधा दरशावहिंगे, चतुरांगुल हे दृगसे मिलहे। रस देव निरंजन को पिवही, गहि जोग जुगोजुग सो जीवही ॥७॥ पर प्रेम प्रवाह बढ़े प्रभुसे, सब आगमभेव सुउर बसें। वह केवलको बीज ग्यानि कहे, निजको अनुभौ बतलाई दिये ॥८॥ हे प्रभु । मुझे तेरी ही लगन नही लगी, मैंने सद्गुरुके चरणकी शरण नही ली, और अभिमान आदि अपने दोष मुझे दिखायी नही दिये, तो फिर मै किस उपायसे ससारसागरको पार कर सकूगा? ॥ १८॥ मैं ही समस्त जगतमें अघमाघम और महा पतित हूँ, यह निश्चय हुए विना साधन किस तरह सफल होगे ? ॥ १९ ॥ हे भगवन् ! तेरे चरणकमलमें वारवार गिर-गिरकर यही माँगता हूँ कि सद्गुरु एव सत तेरा ही स्वरूप है और परमार्थसे वही मेरा स्वरूप है, ऐसा दृढ़ विश्वास मुझमें उत्पन्न कर दे ॥ २० ॥ + इसका विशेषार्थ 'नित्यनियमादि पाठ ( भावार्थ सहित )' में देखें।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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