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________________ ... २५ वां, वर्ष ३१५ आप दोनो विचार करके वस्तुको पुन. पुन. समझें। मनसे किये हुए निश्चयको साक्षात् निश्चय न मानियेगा । ज्ञानीसे हुए निश्चयको जानकर प्रवृत्ति करनेमे कल्याण है । फिर जैसा भावी। सुधाके विषयमे हमे सन्देह नहीं है, आप उसका स्वरूपं समझे, और तभी फल है। . . . . . . . . . . . प्रणाम पहुँचे । . . , , . .३०९ " बंबई, मगसिर वदी ३०, गुरु, १९४८ "अनुक्रमे संयम स्पर्शतो जी, पाम्यो क्षायकभाव रे।" संयम"श्रेणी फूलडे जी, पूर्जु पद निष्पाव रे॥"' ( आत्माकी अभेदचिंतनारूप ) संयमके एकके बाद एक क्रमका अनुभव करके क्षायिक भाव ( जड परिणतिका त्याग) को प्राप्त हुए सिद्धार्थके पुत्रके निर्मल चरणकमलकी सयमश्रेणिरूप फूलोसे पूजा करता हूँ। उपर्युक्त वचन अतिशय गम्भीर है। ------- लि० यथार्थ बोधस्वरूपका यथार्थ । .. . ३१०.. बबई, पौष सुदी ३, १९४८ 'अनुक्रमे संयम स्पर्शतो जी, पाम्यो क्षायकभाव,रे। . . . संयम श्रेणी फूलडे जी, पूजं पद निष्पाव रे॥ is app __ ! 'दर्शन सकलना नय ग्रहे, आप रहे निज भावे रे। हितकरी जनने संजीवनी, चारो तेह चरावे रे॥ _off. .., वर्शन जे ,थयां, जूजवां, ते ओघ, नजरते फेरे रे। - , " : .-- .भेद थिरादिक दृष्टिमां,' समकितदृष्टिने हेरे. रे ॥ - - - । । .... - }, '' बोज ईहां ग्रहे, जिनवर' शुद्ध प्रणामो रे। ... ... 'भावाचारज' सेवना, . भव - उद्वेग- -सुठामो रे॥ .. । 1 . . . . . . . . . । १ भावार्थ -"अनुक्रमसे उत्तरोत्तर सयमस्थानकको स्पर्श करते हुए मोहनीयकर्मका क्षय करके उत्कृष्ट सयम'स्थानरूप क्षीणमोहगुणस्थानको प्राप्त हुए श्री वीरस्वामीके पापरहित चरणकमलको सयमणिरूप भावपुष्पोसे पूजता हूँ। '२भावार्य-आत्मज्ञानी सभी दर्शनोंके नय अर्थात् दृष्टिबिंदुको यथावत् समझता है, और स्वय किसी दर्शन अथवा मतमें रागद्वेष या आग्रह न करते हुए आत्मस्वभावमें रमण करता है.। वह अन्य जीवोको अनुरूप एव हितकारी सजीवनीरूप-वास्तविक धर्मका उपदेश देता है। । । । - --- ।। .. , । ३ भावार्थ-जगतमें जो भिन्न-भिन्न धर्ममत प्रचलित,हे उसका कारण ओघदृष्टि अर्थात् मिथ्या ज्ञान है, स्थिरादिक चार दृष्टिमें सम्यग्दर्शन अथवा आत्माका वास्तविक योग होता है जिससे वह योगदृष्टि है । फिर सम्यग्दृष्टिको वह भेद,प्रतीत नही होता अर्थात् भेद दूर हो जाता है। - - - - ४ भावार्थ-इस दृष्टिमें जीव योगके वीज अथवा समकित ,प्राप्त होनेके कारणोको प्राप्त करता रहता है । फिर वह शुद्ध एव निष्काम भावसे जिनवरको प्रणाम करता है, भावाचार्यकी सेवा करता है और भवोद्वेग अथवा वैराग्य धारण करता है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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