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________________ श्रीमद राजचन्द्र सत्य -1 - जिनेश्वर भगवानकी भक्तिसे अनुपम लाभ है । इसके कारण महान है । 'उनके उपकारसे उनकी भक्ति अवश्य करनी चाहिये । उनके पुरुषार्थका स्मरण होता है, जिससे कल्याण होता है । इत्यादि इत्यादि मात्र सामान्य कारण मैंने यथामति कहे हैं । वे अन्य भाविकोके लिये भी सुखदायक हो ।" ७० शिक्षापाठ १५ : भक्तिका उपदेश तोटक छन्द *शुभ शीतळतामय छाय रही, मनवाछित ज्यां फळपंक्ति कही । जिनभक्ति ग्रहो तरु कल्प अहो, भजीने भगवंत भवत लहो ॥१॥ निज आत्मस्वरूप मुदा प्रगटे, मनताप उताप तमाम मटे । अति निर्जरता वणदाम ग्रहो, भजीने भगवत भवंत लहो ॥२॥ समभावी सदा परिणाम थशे, जड मंद अधोगति जन्म जशे । शुभ मंगळ आ परिपूर्ण चहो, भजीने भगवंत अवंत लहो ||३|| शुभ भाव वडे मन शुद्ध करो, नवकार महापदने समरो । नहि एह समान सुमत्र कहो, भजीने भगवंत भवंत लहो ॥४॥ करशो क्षय केवल रागकथा, धरशो शुभ तत्त्वस्वरूप यथा । नृपचंद्र प्रपंच अनंत दहो, भजीने भगवत भवंत लहो ॥५॥ शिक्षापाठ १६ : सच्ची महत्ता कितने मानते है कि लक्ष्मोसे महत्ता मिलती है, कितने मानते हैं कि महान कुटुम्बसे महत्ता मिलती है, कितने मानते हैं कि पुत्रसे महत्ता मिलती है, कितने मानते है कि अधिकारसे महत्ता मिलती है । परंतु उनका यह मानना विवेकदृष्टिसे मिथ्या सिद्ध होता है । वे जिसमे महत्ता मानते हैं उसमे महत्ता नही, परन्तु लघुता है। लक्ष्मीसे ससारमे खानपान, मान, अनुचरोपर आज्ञा, वैभव, ये सब मिलते है और यह १ द्वि० आ० पाठा० उनके परम उपकारके कारण भी उनकी भक्ति अवश्य करनी चाहिये । और उनके पुरुषार्थका स्मरण होनेसे भी शुभ वृत्तियोका उदय होता है । ज्योज्यो श्रीजिनेद्र के स्वरूपमें वृत्तिका लय होता है, त्यो-त्यो परम शाति प्रगट होती है । इस प्रकार जिनभक्तिके कारण यहाँ सक्षेपमे कहे हैं, वे आत्मार्थियो के लिये विशेषरूपसे मनन करने योग्य हैं ।' । *भावार्थ-जिसकी शुभ शीतलतामय छाया है, जिसमे मनोवाछित फलोकी पक्ति लगी है । अहो भव्यो ! तुम कल्पतरुरूपी जिनभक्तिका आश्रय लो और भगवद्भक्ति करके भवात प्राप्त करो ॥१॥ इससे अपने आत्मस्वरूपका आनद प्रगट होता है, मनका ताप एव अन्य सब उत्ताप मिट जाते हैं । मुफ्त कर्मोकी अति निर्जरा होती है। तुम भगवद्भक्ति करके भवात प्राप्त करो ॥ ॥ इससे परिणाम सदा समभावी होगे, जड, मद और अधोगतिके जन्म नष्ट होगे, इस परिपूर्ण शुभ मंगलकी इच्छा करो और भगवद्-भक्ति करके भवात प्राप्त करो ॥३॥ शुभ भावसे मनको शुद्ध करो, नवकार महामत्रका स्मरण करो, इसके समान दूसरा कोई सुमत्र नही है । तुम भगवद्भक्ति करके भवात प्राप्त करो ||४|| रागकथाका मर्जथा क्षय करो, यथार्थ शुभ तत्त्वस्वरूपको धारण करो । राजचद्र कहते है कि भगवद्भक्ति ससारके अनत प्रपचका दहन करो, और भगवद्भक्ति करके भवात प्राप्त करो ॥५॥
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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