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________________ ६१२ श्रीमद् राजचन्द्र परिवर्तन होनेमे वाह्य पुद्गलरूप ओषध आदि निमित्त कारण देखनेमे आते हैं, परतु वास्तवमे तो वह वंध पूर्वसे ही ऐसा बाँधा हुआ है कि उस प्रकारके औषध आदिसे दूर हो सकता है। औषध आदि मिलनेका कारण यह है कि अशुभ बध मंद बाँधा था, और बध भी ऐसा था कि उसे ऐसे निमित्त कारण मिले तो दूर हो सके। परन्तु इससे यो कहना ठीक नहीं है कि पाप करनेसे उस रोगका नाश हो सका, अर्थात् पाप करनेसे पुण्यका फल प्राप्त किया जा सका। पापवाले औषधको इच्छा और उसे प्राप्त करनेकी प्रवृत्तिसे अशुभ कर्म बधने योग्य है और उस पापवाली क्रियासे कुछ शुभ फल नही होता। ऐसा लगे कि अशभ कर्मके उदयरूप असाताको उसने दूर किया जिससे वह शुभरूप हुआ, तो यह समझकी भूल है, असाता ही इस प्रकारकी थी कि उस तरह मिट सके और इतनी आर्तध्यान आदिको प्रवृत्ति कराकर दूसरा बंध कराये। 'पुद्गलविपाकी' अर्थात् जो किसी बाह्य पुद्गलके सयोगसे पुद्गलविपाकरूपसे उदयमे आये और किसी बाह्य पुद्गलके सयोगसे निवृत्त भी हो जाये; जैसे ऋतुके परिवर्तनके कारणसे सरदीकी उत्पत्ति होती है और ऋतु-परिवर्तनसे उसका नाश हो जाता है, अथवा किसी गरम औषध आदिसे वह निवृत्त हो जाती है। निश्चयमुख्यदृष्टिसे तो औषध आदि कथनमात्र है। बाकी तो जो होना होता है वही होता है। ७७५ ववाणिया, चैत्र वदी ५, १९५३ दो पत्र प्राप्त हुए हैं। ज्ञानीकी आज्ञारूप जो जो क्रिया है उस उस क्रियामे तथारूपसे प्रवृत्ति की जाये तो वह अप्रमत्त उपयोग होनेका मुख्य साधन है, ऐसे 'भावार्थमे यहाँसे पहले पत्र लिखा था। उसका ज्यो ज्यो विशेष विचार किया जायेगा त्यो त्यो अपूर्व अर्थका उपदेश मिलेगा। नित्य अमुक शास्त्रस्वाध्याय करनेके बाद उस पत्रका विचार करनेसे अधिक स्पष्ट बोध होना योग्य है। छकायका स्वरूप भी सत्पुरुषकी दृष्टिसे प्रतीत करनेसे तथा उसका विचार करनेसे ज्ञान ही है। यह जीव किस दिशासे आया है, इस वाक्यसे शस्त्रपरिज्ञा अध्ययनका आरभ हुआ है। सद्गुरुके मुखसे इस प्रारम्भवाक्यका आशय समझनेसे समस्त द्वादशागीका रहस्य समझमे आना योग्य है। अभी तो जो आचाराग आदि पढ़ें उसका अधिक अनुप्रेक्षण कीजियेगा। कितने ही उपदेश परोसे वह सहजमे समझमे आ सकेगा। सभी मुनियोको नमस्कार प्राप्त हो । सभी मुमुक्षुओको प्रणाम प्राप्त हो। ७७६ सायला, वैशाख सुदी १५, १९५३ मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, ये कर्मबंधके पाँच कारण हैं। किसी जगह प्रमादके सिवाय चार कारण बताये होते हैं। वहाँ मिथ्यात्व, अविरति और कषायमे प्रमादका अतर्भाव किया होता है। शास्त्रपरिभाषासे 'प्रदेशवध' शब्दका अर्थ - परमाणु सामान्य. एक प्रदेशावगाही है। ऐसे एक परमाणुका ग्रहण एक प्रदेश कहा जाता है। जीव कर्मबंधमे अनत परमाणुओको ग्रहण करता है। वे परमाणु यदि फैल जाये तो अनतप्रदेशी हो सकें, जिससे अनन्त प्रदेशका बंध कहा जाये। उसमे बंध १ देखें आक ७६७
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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