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________________ श्रीमद राजचन्द्र ऐसा जानकर अभी अहमदाबाद- क्षेत्रमे जानेकी वृत्ति योग्य नही लगती, क्योकि रागदृष्टिवाले जीवके पत्रकी प्रेरणासे, और मानके रक्षण के लिये उस क्षेत्रमे जाने जैसा होता है, जो बात आत्माके अहितका हेतु है । कदाचित् आप ऐसा समझते हो कि जो लोग असभव वात कहते हैं उन लोगोके मनमे अपनी भूल मालूम होगी और धर्मकी हानि होनेसे रुक जायेगी तो यह एक हेतु ठीक है, परन्तु वैसा रक्षण करनेके लिये उपर्युक्त दो दोप न आते हो तो किसी अपेक्षासे लोगोकी भूल दूर होनेके लिये विहार कर्तव्य है । परन्तु एक बार तो अविषमभावसे उस बातको सहन करके अनुक्रमसे स्वाभाविक विहार होते होते उस क्षेत्रमे जाना हो और किन्ही लोगोको वहम हो वह निवृत्त हो ऐसा करना उचित है, परन्तु रागदृष्टिवालेके वचनोको प्रेरणासे, तथा मानके रक्षणके लिये अथवा अविषमता न रहनेसे लोगोकी भूल मिटानेका निमित्त मानना, वह आत्महितकारी नही है, इसलिये अभी इस बातको उपशात कर अहमदा वाद आप बताये कि क्वचित् लल्लुजी आदि मुनियोके लिये किसीने कुछ कहा हो तो इससे वे मुनि दोषपात्र नही होते, उनके समागममे आनेसे जिन लोगोको वैसा सन्देह होगा वह सहज ही निवृत्त हो जायेगा, अथवा किसी समझने की भूलसे सन्देह हो या दूसरा कोई स्वपक्षके मानके लिये सन्देह प्रेरित करे तो वह विषम मार्ग है, इसलिये विचारवान मुनियोको वहाँ समदर्शी होना योग्य है, आपको चित्तमे कोई क्षोभ करना योग्य नही है, ऐसा बतायें। आप ऐसा करेगे तो हमारे आत्माका, आपके आत्माका, और धर्मका रक्षण होगा ।” इस प्रकार जैसे उनकी वृत्तिमे जचे, वैसे योगमे बातचीत करके समाधान करें, और अभी अहमदाबाद क्षेत्रमे स्थिति करना न वने ऐसा करेंगे तो आगे जाकर विशेष उपकारका हेतु है । ऐसा करते हुए भी यदि किसी भी प्रकार से भाणजीस्वामी न मानें तो अहमदाबाद क्षेत्रकी ओर भी विहार कीजिये, और सयमके उपयोगमे सावधान रहकर आचरण करिये। आप अविषम रहिये । ६३० ८२९ मुमुक्षुता जैसे दृढ हो वैसे करें, हारने अथवा निराश होने का कोई हेतु नही है । जीवको दुर्लभ योग प्राप्त हुआ तो फिर थोडासा प्रमाद छोड देनेमे जीवको उद्विग्न अथवा निराश होने जैसा कुछ भी नही है । मोरबी, चैत्र वदी १२, रवि, १९५४ ८३० 'पंचास्तिकाय ' ग्रन्थ रजिस्टर्ड बुक पोस्टसे भेजनेकी व्यवस्था करें | आप, छोटालाल, त्रिभोवन, कीलाभाई, धुरीभाई और आदिसे अन्त तक पढ़ना अथवा सुनना योग्य है । द्रव्य, क्षेत्र, काल कर्तव्य है । झवेरभाई आदिको 'मोक्षमार्गप्रकाश' और भावसे नियमित शास्त्रावलोकन मोरबी, चैत्र वदी १२, रवि, १९५४ ८३१ श्री देवकीर्ण आदि मुमुक्षुओको यथाविनय नमस्कार प्राप्त हो । 'कर्मग्रन्थ', 'गोम्मटसारशास्त्र' आदिसे अन्त तक विचार करने योग्य हैं । दु.पमकालका प्रबल राज्य चल रहा है, तो भी अडिग निश्चयसे, सत्पुरुषकी आज्ञामे वृत्तिका अनुसन्धान करके जो पुरुष अगुप्तवीर्यसे सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चारित्रकी उपासना करना चाहता है, उसे परम शान्तिका मार्ग अभी भी प्राप्त होना योग्य है ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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