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________________ श्रीमद राजचन्द्र धनाढ्य - पडितजी, आप एक बडे मर्मभरे विचारसे निकले हैं, इसलिये मैं अवश्य आपसे अपने अनुभवकी बात ज्यो की त्यो कहता हूँ, फिर आपकी जैसी इच्छा हो वैसा करें। मेरे यहाँ आपने जो-जो सुख देखे वे वे सुख भारत भरमे कही भी नही हैं यह आपने कहा, तो वैसा होगा, परन्तु सचमुच यह मुझे सम्भव नही लगता । मेरा सिद्धान्त ऐसा है कि जगतमे किसी स्थानमे वास्तविक सुख नही है । जगत दु खसे जल रहा है | आप मुझे सुखी देखते है परन्तु वस्तुत मै सुखी नही हूँ । विप्र --- आपका यह कहना कोई अनुभव सिद्ध और मार्मिक होगा। मैंने अनेक शास्त्र देखे है, फिर भी ऐसे मर्मपूर्वक विचार ध्यानमे लेनेका मैने परिश्रम ही नही उठाया और मुझे ऐसा अनुभव सबके लिये नही हुआ । अब आपको क्या दुख है, वह मुझसे कहिये । धनाढ्य --पडितजी, आपकी इच्छा है तो मै कहता हूँ, वह ध्यानपूर्वक मनन करने योग्य है, और इस पर से कोई मार्गदर्शन मिल सकता है । १०६ शिक्षापाठ ६३ सुखसम्बन्धी विचार -- भाग ३ आप अभी मेरी जैसी स्थिति देखते हैं वैसी स्थिति लक्ष्मी, कुटुम्ब और स्त्रीके सम्बन्धमे पहले भी थी । जिस समयकी मै बात कर रहा हूँ, उस समयको लगभग बीस वर्षं हो गये । व्यापार और वैभवकी बहुलता यह सब कारोबार उलटा पडनेसे घटने लगी । करोडपति कहलानेवाला मै लगातार घाटेका भार वहन करनेसे मात्र तीन वर्षमे लक्ष्मीहीन हो गया । जहाँ सर्वथा सीधा समझकर दाव लगाया था वहाँ उलटा दाव पडा । उस अरसे मे मेरो स्त्री भी गुजर गई। उस समय मेरे कोई सन्तान न थी । प्रबल हानियोके कारण मुझे यहाँसे निकल जाना पडा । मेरे कुटुम्बियोने यथाशक्ति रक्षा की, परन्तु वह आकाश फटनेपर थिगली लगाना था । अन्न और दॉतमे वैर होनेकी स्थितिमे मै बहुत आगे निकल पड़ा । जब मै वहाँसे निकला तब मेरे कुटुम्बी मुझे रोककर कहने लगे - " तूने गॉवका दरवाजा भी नही देखा, इसलिये तुझे जाने नही दिया जा सकता । तेरा कोमल शरीर कुछ भी कर नही सकेगा, और तू वहाँ जाये और सुखी हो जाये तो फिर वापस भी नही आयेगा, इसलिये यह विचार तुझे छोड देना चाहिये ।" मैंने अनेक प्रकारसे उन्हे समझाया और यदि मैं अच्छी स्थिति प्राप्त करूँगा तो यहाँ अवश्य आऊँगा ऐसा वचन देकर मैं जावाबन्दरके पर्यटनमे निकल पडा । प्रारब्ध पलटनेकी तैयारी हुई । दैवयोगसे मेरे पास एक दमडी भी रही न थी । एक या दो महीने उदरपोपण चलाने जितना साधन भी रहा न था । फिर भी मे जावामे गया । वहाँ मेरी बुद्धिने मेरे प्रारब्धको चमकाया जिस जहाजमे मैं बैठा था उस जहाजके नाविकने मेरी चपलता और नम्रता देखकर अपने सेठसे मेरे दुखकी बात की। उस सेठने मुझे बुलाकर एक काममे लगा दिया, जिसमे मैं अपने पोपणसे चौगुना पैदा करता था । इस व्यापारमे मेरा चित्त जब स्थिर हो गया तव भारतके साथ इस व्यापारको बढानेका मैंने प्रयत्न किया और उसमे सफल हुआ। दो वर्षमै पाँच लाख जितनी कमाई हुई | फिर सेठसे राजी-खुशीसे आज्ञा लेकर मै कुछ माल खरीदकर द्वारिकाकी ओर चल दिया । थोडे समयमे वहाँ आ पहुँचा, तब बहुत से लोग मेरा स्वागत करने आये थे । मे अपने कुटुम्बियोसे आनन्दपूर्वक जाकर मिला । वे मेरे भाग्यको प्रशसा करने लगे । जावेसे लिये हुए मालने मुझे एकके पॉच कराये । पडितजी | वहाँ अनेक प्रकारसे मुझे पाप करने पडे थे, पेटभर खानेको भी मुझे नही मिला था, परन्तु एक बार लक्ष्मी सिद्ध करनेकी जो मैंने प्रतिज्ञा की थी वह प्रारब्धयोगसे पूर्ण हुई । जिस दुःखदायक स्थितिमे में था उसमे दुखकी क्या कमी थी ? स्त्री, पुत्र ये तो यद्यपि थे ही नही, माँ-बाप पहलेसे परलोक सिधार गये थे । कुटुम्बियोके वियोगसे और विना दमडीके जिस समय जावा गया था उस समयकी स्थिति अज्ञानदृष्टिसे आँखो मे आँसू ला देती है । ऐसे समयमे भी मैंने धर्ममे ध्यान रखा था, दिनका अमुक भाग उसमे 1
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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