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________________ उपदेश छाया ७१७ सत्पुरुषको वाणी जो सुनता है वह द्रव्य - अध्यात्मी, शब्द- अध्यात्मी कहा जाता है । शब्द - अध्यात्मी अध्यात्मकी बातें कहते है, और महा अनर्थकारक प्रवर्तन करते है, 'इस कारणसे उन्हे ज्ञानदग्ध कहे । “ऐसे अध्यात्मियोको शुष्क और अज्ञानी समझे । 'ज्ञानीपुरुषरूपी सूर्यके' प्रगट' होने के बाद सच्चे' अध्यात्मी शुष्क रीतिसे प्रवृत्ति नही करते, भावअध्यात्ममे प्रगटरूपसे रहते है । आत्मामे सच्चे गुण उत्पन्न होनेके बाद मोक्ष होता है । इस कालमे द्रव्यअध्यात्मी, ज्ञानदग्ध बहुत हैं । द्रव्य -अध्यात्मी मदिरके कलश के दृष्टात से मूल परमार्थको नही समझते । मोह आदि विकार ऐसे' है' कि सम्यग्दृष्टिकों भी चलायमान कर देते हैं, इसलिये आप तो समझे कि मोक्षमार्ग प्राप्त करनेमे वैसे अनेक विघ्न हैं । आयु थोड़ी है, और कार्य महाभारत करना है । जिस तरह नाव छोटी हो और बड़ा महासागर पार करना हो, उसी तरह आयु तो थोड़ी है, और संसाररूपी महासागर पार करना है । जो पुरुष प्रभुके नामसे पार हुए है उन पुरुषोको धन्य है । अज्ञानी जीवको पता नही है कि अमुक गिरने की जगह है, परंतु ज्ञानियोने उसे देखा हुआ है । अज्ञानी, द्रव्यं-अध्यात्मी कहते हैं कि मुझमे कषाय- नही है । सम्यग्दृष्टि चैतन्यसयुक्त है । ! एक मुनि गुफामे ध्यान करनेके लिये जा रहे थे । वहाँ सिंह मिल गया । उनके हाथमै लकडी थी । सिंहके सामने लकडी उठाई जाये तो सिंह चला जाये यो मनमे होनेपर मुनिको विचार आया- 'मै आत्मा अजर अमर हूँ, देहप्रेम रखना योग्य नही है, इसलिये हे जोव । यही खड़ा रह । सिंहका भय है वही अज्ञान है । देहमे सूच्छके कारण भय है ।' ऐसी भावना करते करते वे दो घड़ी तक वही खड़े रहे कि इतनेमे केवलज्ञान प्रगट हो गया । इसलिये विचारदशा, विचारदशामे बहुत ही अंतर है । ' उपयोग जीवके बिना नही होता । जड और चेतन इन दोनोमे परिणाम होता है । देहधारी जीवमे अध्यवसायकी प्रवृत्ति होती है, सकल्प-विकल्प खडे होते है, परन्तु ज्ञानसे निर्विकल्पता होती है । अध्यवसायका क्षय ज्ञानसे होता है । ध्यानका हेतु यही है । उपयोग रहना चाहिये ।, धर्मंध्यान, शुक्लध्यान उत्तम कहे जाते है । आतं और रौद्रध्यान अशुभ कहे जाते है । वाह्य उपाधि हीं अध्यवसाय है | उत्तम लेश्या हो तो ध्यान कहा जाता है; और आत्मा मम्यक् परिणाम प्राप्त करता है । 1 44 माणेकदासजी एक वेदाती थे । उन्होने एक ग्रथमे मोक्षकी अपेक्षा सत्संगको अधिक यथार्थ माना है । कहा है "निज छंदनसे, ना मिले, हेरो वैकुठ धाम । संतकृपासे पाईए, सो हरि सबसे ठाम ॥” जैनमार्गमे अनेक शाखाएँ हो गयी है । लोकाशाको हुए लगभग चार सौ वर्ष हुए है। परंतु उस ढूँढिया सम्प्रदायमे पाँच ग्रंथ भी नही रचे गये है और वेदातमे दस हजार जितने गथ हुए है। चार सो वर्ष, बुद्धि होती तो वह छिपी न रहती । कुगुरु और अज्ञानी पाखडियोका इस कालमे पार नहीं है । बडे बडे जुलूस निकालता है, और धन खर्च करता है, यो जानकर कि मेरा कल्याण होगा, ऐसी बडी बात समझकर हजारो रुपये खर्च कर डालता है। एक एक पैसा तो झूठ बोल बोलकर इकट्टा करता है, और एक साथ हजारो रुपये खर्च कर डालता है। देखिये, जीवका कितना अधिक ज्ञान । कुछ विचार ही नही आता । 1 आत्माका जैसा स्वरूप है, वैसे ही स्वरूपको 'यथाख्यातचारित्र' कहा है । भय अज्ञान से है । सिंहका भय सिनोको नही होता । नागिनीको नागका भय नहीं होता। इसका कारण यह है कि इस प्रकारका उनका अज्ञान दूर हो गया है ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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