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________________ श्रीमद् राजचन्द्र वे शुभ प्रसगमे सिद्विवेकी सिद्ध हो और रूढिसे प्रतिकूल रहे जिससे परस्पर कौटुम्बिक स्नेह निष्पन्न हो सके - ऐसी सुदर योजना उनके हृदयमे है क्या ? आप ठसायेंगे क्या ? कोई दूसरा ठसायेगा क्या ? यह विचार पुन पुन हृदयमे आया करता है । निदान, साधारण विवेकी जिन विचारोको हवाई समझें, वैसे विचार, जो वस्तु और जो पद आज सम्राज्ञी विक्टोरिया के लिये दुर्लभ - केवल असंभवित हैं - उन विचारो, उस वस्तु और उस पदकी ओर सपूर्ण इच्छा होनेसे, ऊपर लिखा है उससे लेश मात्र भी प्रतिकूल हो तो उस पदाभिलापी पुरुषके चरित्रको परम लाछन लगने जैसा है । ये सारे हवाई ( अभी लगनेवाले ) विचार केवल आपको ही बताता हूँ । अत करण शुक्ल-अद्भुत - विचारोंसे भरपूर है । परन्तु आप वहाँ रहे और मै यहाँ रहा I १७० ३१ वाणिया, प्र० चैत्र सुदी १२॥ रवि, १९४४ क्षणभर दुनियामे सत्पुरुषका समागम ही अमूल्य और अनुपम लाभ है | ३२ ववाणिया, आपाढ वदी ३, बुध, १९४४ यह एक अद्भुत बात है कि चार पाँच दिन हुए वायी आँखमे एक छोटे चक्र जैसा बिजलीके समान चमकारा हुआ करता है, जो आँखसे जरा दूर जाकर अदृश्य हो जाता है । लगभग पाँच मिनिट होता है या दिखायी देता है । मेरी दृष्टिमे वारवार यह देखनेमे आता है । इस बारेमे किसी प्रकारकी भ्रान्ति नही है । इसका कोई निमित्त कारण मालूम नही होता । बहुत आश्चर्यकारी है । आँखमे दूसरा किसी भी प्रकारका असर नही है । प्रकाश और दिव्यता विशेष रहते है । चारेक दिन पहले दोपहरके २-२० मिनिटपर एक आश्चर्यभूत स्वप्न आनेके वाद यह हुआ हो ऐसा मालूम होता है । अन्तकरण बहुत प्रकाश रहता है, शक्ति बहुत तेजस्वी है । ध्यान समाधिस्थ रहता है । कोई कारण समझमे नही आता । यह पात गुप्त रखनेके लिये ही बता देता हूँ । अव इस सम्बन्धमे विशेष फिर लिखूँगा । ३३ वाणिया, आषाढ वदी ४, शुक्र, १९४४ 3 आप भी आर्थिक बेपरवाही न रखियेगा । शरीर और आत्मिकसुखकी इच्छा करके, व्ययका कुछ सकोच करेंगे तो मैं मानूँगा कि मुझपर उपकार हुआ । भवितव्यताका भाव होगा तो मै आपके अनुकूल सुविधायुक्त समागमका लाभ उठा सकूँगा । ३४ 'ववाणिया, श्रावण वदी १३, सोम, १९४४ 'वामनेत्रसम्वन्धी चमत्कारसे आत्मशक्तिमे अल्प परिवर्तन हुआ है । ३५ ववाणिया, श्रावण वदी ३०, १९४४ उपाधि कम है, यह आनन्दजनक है । धर्मकरनीके लिये कुछ समय मिलता होगा । धर्मकरनीके लिये थोडा समय मिलता है, आत्मसिद्धिके लिये भी थोडा समय मिलता है, शास्त्रपठन और अन्य वाचनके लिये भी थोडा समय मिलता है, थोड़ा समय लेखनक्रियामे जाता है, थोडा समय आहार-विहार- क्रिया ले लेती है, थोड़ा समय शौचक्रियामे जाता है, छ घटे - निद्रा ले लेती है, थोडा समय मनोराज ले जाता है, फिर भी छ. घटे बचते हैं । सत्संगका लेश अंश भी न मिलनेसे विचारा यह आत्मा विवेक-विकलताका वेदन करता है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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