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________________ २४ वा वर्ष २७९ परमात्मा और आत्माका एकरूप हो जाना (1) यह पराभक्तिकी आखिरी हद है। एक यही लय रहना सो पराभक्ति है। परममहात्म्या गोपागनाएँ महात्मा वासुदेवकी भक्तिमे इसी प्रकारसे रही थी। परमात्माको निरजन और निर्देहरूपसे चिंतन करनेपर यह लय आना विकट है, इसलिये जिसे परमात्माका साक्षात्कार हुआ है, ऐसा देहधारी परमात्मा उस पराभक्तिका परम कारण है । उस ज्ञानी पुरुपके सर्व चरित्रमे ऐक्यभावका लक्ष्य होनेसे उसके हृदयमे विराजमान परमात्माका ऐक्यभाव होता है, और यही पराभक्ति है। ज्ञानीपुरुष और परमात्मामे अतर ही नहीं है, और जो कोई अतर मानता है, उसे मार्गको प्राप्ति परम विकट है । ज्ञानो तो परमात्मा ही है, और उसकी पहचानके बिना परमात्माकी प्राप्ति नही हुई है, इसलिये सर्वथा भक्ति करने योग्य ऐमी देहधारी दिव्य मूर्ति-ज्ञानीरूप परमात्माकी-का नमस्कार आदि भक्तिसे लेकर पराभक्तिके अत तक एक लयसे आराधन करना, ऐसा शास्त्रका आशय है । परमात्मा इस देहधारीरूपसे उत्पन्न हुआ है ऐसी ही ज्ञानी पुरुपके प्रति जीवको बुद्धि होनेपर भक्ति उदित होती है, और वह भक्ति क्रमश. पराभक्तिरूप हो जाती है। इस विपयमे श्रीमद्भागवतमे, भगवद्गीतामे बहुतसे भेद प्रकाशित करके इसी लक्ष्यकी प्रशसा की है, अधिक क्या कहना ? ज्ञानी तीर्थकरदेवमे लक्ष्य होनेके लिये जैनधर्ममे भी पचपरमेष्ठी मत्रमे "णमो अरिहताण" पदके बाद सिद्धको नमस्कार किया है, यही भक्तिके लिये यह सूचित करता है कि पहले ज्ञानी पुरुपकी भक्ति, और यही परमात्माकी प्राप्ति और भक्तिका निदान है। दूसरा एक प्रश्न (एकसे अधिक बार) आपने ऐसा लिखा था कि व्यवहारमे व्यापार आदिके विषयमे यह वर्ष यथेष्ट लाभदायक नही लगता, और कठिनाई रहा करती है। परमात्माकी भक्ति ही जिसे प्रिय है, ऐसे पुरुषको ऐसी कठिनाई न हो तो फिर ऐसा समझना कि उसे सच्चे परमात्माकी भक्ति ही नही है। अथवा तो जान-बूझकर परमात्माकी इच्छारूप मायाने वैसी कठिनाई भेजनेके कार्यका विस्मरण किया है । जनक विदेही और महात्मा कृष्णके विपयमे मायाका विस्मरण हुआ लगता है, तथापि ऐसा नहीं है। जनक विदेहीकी कठिनाईके विपयमे यहाँ कुछ कहना योग्य नही है, क्योकि वह अप्रगट कठिनाई है, और महात्मा कृष्णकी सकटरूप कठिनाई प्रगट ही है। इसी तरह अष्ट महासिद्धि और नवनिधि भी प्रसिद्ध ही है, तथापि कठिनाई तो योग्य ही थी, और होनी चाहिये । यह कठिनाई मायाकी है, और परमात्माके लक्ष्यकी तो यह सरलता ही है, और ऐसा ही हो । x x x राजाने विकट तप करके परमात्माका आराधन किया, और देहधारीरूपसे परमात्माने उसे दर्शन दिया और वर मांगनेको कहा तब xx x राजाने माँगा कि हे भगवन् । ऐसो जो राज्यलक्ष्मी मुझे दी है वह ठीक ही नही है, तेरा परम अनुग्रह मुझपर हो तो यह वर दे कि पचविषयकी साधनरूप इस राज्यलक्ष्मीका फिरसे मुझे स्वप्न भी न आये । परमात्मा दग रहकर 'तथास्तु' कहकर स्वधामको चले गये। कहनेका आशय यह है कि ऐसा ही योग्य है । भगवद्भक्तको कठिनाई और सरलता तथा साता एव असाता यह सब समान ही है। और फिर कठिनाई और असाता तो विशेष अनुकूल है कि जहाँ मायाके प्रतिबधका दर्शन ही नहीं होता। आप तो इस वातको जानते ही हैं, तथापि कुटुम्ब आदिके विपयमे कठिनाई होनी योग्य नहीं है ऐसा मनमे उठता हो तो उसका कारण यही है कि परमात्मा यो कहता है कि आप अपने कुटुम्बके प्रति नि स्नेह होवें, और उसके प्रति समभावी होकर प्रतिबन्ध रहित होवें, वह आपका है ऐसा न मानें, और प्रारब्धयोगके कारण ऐसा माना जाता है, उसे दूर करनेके लिये मैंने यह कठिनाई भेजी है । अधिक क्या कहना ? यह ऐसा ही है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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