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________________ २८० श्रीमद राजचन्द्र २२४ बबई, फागुन वदी २, १९४७ 'योगवासिष्ठ' आदि वैराग्य उपशम आदिके उपदेशक शास्त्र हैं, उन्हे पढनेका जितना अधिक अभ्यास हो, उतना करना योग्य है । अमुक क्रियाके प्रवर्तनमे जो लक्ष्य रहता है उसका विशेषत समाधान बतलाने सवधी भूमिकामे अभी हमारी स्थिति नही है । २२५ बंबई, फागुन वदी ३, शनि, १९४७ सुज्ञ भाई, भाई त्रिभोवनका एक प्रश्न उत्तर देने योग्य है । तथापि अभी कोई इस प्रकारका उदयकाल रहता है कि ऐसा करनेमे निरुपायता हो रही है । इसके लिये क्षमा चाहता हूँ । भाई त्रिभोवनके पिताजीसे मेरे यथायोग्यपूर्वक कहना कि आपके समागममे प्रसन्नता है, परंतु कितनी ही ऐसी निरुपायता है कि उस निरुपायताको भोगे बिना दूसरे प्राणोको परमार्थके लिये स्पष्ट कह सकने जैसी दशा नही है । और इसके लिये दीनभावसे आपकी क्षमा चाही है । योगवासिष्ठसे वृत्ति उपशम रहती हो तो पढने-सुननेमे प्रतिबन्ध नही है । अधिक उदयकाल बीतनेपर । उदयकाल तक अधिक कुछ नही हो सकेगा । 1 २२६ सत्स्वरूपको अभेद भक्तिसे नमस्कार बंबई, फागुन, १९४७ सुज्ञ भाई छोटालाल, यहाँ आनदवृत्ति है । सुज्ञ अवालाल और त्रिभोवनके पत्र मिले ऐसा उन्हे कहे । अवसर प्राप्त होनेपर योग्य उत्तर दिया जा सके ऐसा भाई त्रिभोवनका पत्र है । वासनाके उपगमार्थ उनका विज्ञापन है, और उसका सर्वोत्तम उपाय तो ज्ञानी पुरुषका योग मिलना है । दृढ मुमुक्षुता हो और अमुक काल तक वैसा योग मिला हो तो जीवका कल्याण हो जाये इसे निशंक मानिये | आप सब सत्सग, सत्शास्त्र आदि सम्वन्धी आजकल कैसे योगमे रहते है सो लिखें। इस योग के लिये प्रमादभाव करना योग्य ही नही है, मात्र पूर्वकी कोई गाढ प्रतिबद्धता हो, तो आत्मा तो इस विषयमे अप्रमत्त होना चाहिये । आपकी इच्छाकी खातिर कुछ भी लिखना चाहिये, इसलिये यथा प्रसग लिखता हूँ। बाकी अभी सत्कथा लिखी जा सकने जैसी दशा ( इच्छा ? ) नही है । दोनो के पत्र न लिखने पड़ें, इसलिये यह एक आपको लिखा है । और यह जिसे उपयोगी हो उसका है | आपके पिताजी से मेरा यथायोग्य कहिये, याद किया है ऐसा भी कहिये । वि० रायचद । २२७ बई, फागुन, १९४७ तत्काल या नियमित समयपर पत्र लिखना नही बन पाता। इसलिये विशेष उपकारका हेतु होनेका यथायोग्य कारण उपेक्षित करना पडता है, जिसके लिये खेद हो तो भी प्रारब्धका समाधान होनेके लिये वे दोनो ही प्रकार उपशम करने योग्य है । २२८ वंबई, फागुन, १९४७ सदुपदेशात्मक सहज वचन लिखने हो इसमे भी लिखते लिखते वृत्ति सकुचितताको प्राप्त हो जाती है, क्योकि उन वचनोके साथ समस्त परमार्थं मार्गकी सन्धि मिली होती है, उसको ग्रहण करना पाठकोंके
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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