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________________ ३० वाँ वर्ष ५८३ जगतके भावोसे उदासीन होकर चैतन्यवृत्ति शुद्ध चैतन्यस्वभावमे समवस्थित भगवानमे प्रीतिमान हुई, उसका आनन्दधनजो हर्ष प्रदर्शित करते हैं। अपनी श्रद्धा नामकी सखीको आनन्दघनजीकी चेतन्यवृत्ति कहती है- "हे सखी | मैंने ऋषभदेव भगवानसे लग्न किया है, और ये भगवान मुझे सबसे प्यारे हैं। ये भगवान मेरे पति हुए है, इसलिये अव मैं दूसरे किसी भी पतिको इच्छा करूँ ही नही । क्योकि अन्य सब जन्म, जरा, मरण आदि दुखोंसे आकुल-व्याकुल हैं, क्षणभरके लिये भी सुखी नही है; ऐसे जीवको पति बनानेसे मुझे सुख कहाँसे हो सकता है ? भगवान ऋषभदेव तो अनन्त अव्याबाध सुखसमाधिको प्राप्त हुए हैं, इसलिये उनका आश्रय लूं तो मुझे उसी वस्तुकी प्राप्ति हो । यह योग वर्तमानमे प्राप्त होनेसे हे सखी । मुझे परमशीतलता हुई। दूसरे पतिका तो किसी समय वियोग भी हो जाये, परन्तु मेरे इन स्वामीका तो किसी भी समय वियोग होता ही नही। जबसे ये स्वामी प्रसन्न हुए है तबसे किसी भी दिन संग नही छोड़ते। इन स्वामीके योगके स्वभावको सिद्धान्तमे 'सादि-अनन्त' अर्थात् इस योगके होनेकी आदि है, परन्तु किसी दिन इनका वियोग होनेवाला नही है. इसलिये अनन्त है, ऐसा कहा है, इसलिये अब मुझे कभी भी इन पतिका वियोग होगा ही नही ॥१॥ हे सखी | इस जगतमे पतिका वियोग न होनेके लिये स्त्रियाँ जो नाना प्रकारके उपाय करती हैं वे उपाय सच्चे नही हैं, और इस तरह मेरे पतिकी प्राप्ति नहीं होती। उन उपायोके मिथ्यापनको बतलानेके लिये उनमेसे थोडेसे उपाय तुझे बतातो हूँ'-कोई एक स्त्री तो पतिके साथ काष्ठमे जल जानेकी इच्छा करती है, कि जिससे पतिके साथ मिलाप ही बना रहे, परतु उस मिलापका कुछ संभव नहीं है, क्योकि वह पति तो अपने कर्मानुसार उसे जहाँ जाना था वहां चला गया। और जो स्त्री सती होकर मिलापकी इच्छा करती है वह स्त्री भी मिलापके लिये एक चितामे जलकर मरनेकी इच्छा करती है तो भी वह अपने फर्मानुसार देहको प्राप्त होनेवाली है, दोनो एक ही जगह देह धारण करे, और पति-पत्नीरूपसे योग प्राप्तकर निरतर सुख भोगें ऐसा कोई नियम नही है। इसलिये उस पतिका वियोग हुआ, और उसका योग भी असभव रहा, ऐसे पतिके मिलापको मैंने झूठा माना है, क्योकि उसका ठौर-ठिकाना कुछ नही है। अथवा प्रथम पदका यह अर्थ भी होता है कि परमेश्वररूप पतिकी प्राप्तिके लिये कोई काष्ठका भक्षण करता है, अर्थात् पंचाग्निको धूनी जलाकर उसमे काष्ठ होमकर उस अग्निका परिषह सहन करता है, और इससे ऐसा समझता है कि परमेश्वररूप पतिको पा लेंगे, परतु यह समझना मिथ्या है, क्योकि पचाग्नि तापनेमे उसकी प्रवृत्ति है, उस पतिका स्वरूप जानकर, उस पतिके प्रसन्न होनेके कारणोको जानकर उन कारणोकी उपासना वह नहीं करता, इसलिये वह परमेश्वररूप पतिको कहाँसे पायेगा ? उसकी मतिका जिस स्वभावमे परिणमन हुआ है उसी प्रकारकी गतिको वह पायेगा, जिससे उस मिलापका कोई ठौर-ठिकाना नहीं है ॥३॥ हे सखी | कोई पतिको रिझानेके लिये अनेक प्रकारके तप करती है, परतु वह मात्र शरीरको कष्ट है। इसे पतिको राजी करनेका मार्ग मेंने समझा नहीं है। पतिको रजन करनेके लिये तो दोनोकी धातुओका मिलाप होना चाहिये। कोई स्त्रो चाहे जितने कष्टसे तपश्चर्या करके अपने पतिको रिझानेकी इच्छा करे तो भी जब तक वह स्त्री अपनी प्रकृतिको पतिको प्रकृतिके स्वभावानुसार न कर सके तव तक प्रकृति कोई कहे लीला रे अलख अलख तणी रे, लख पूरे मन आश। दोषरहितने लोला नवि घटे रे, लोला दोष विलान पन० ५ चित्तप्रसन्ने रे पूजन फळ कप रे, पूजा अखटित एह । फपटरहित पई आवन अरपणा रे, आनदघन पदरेह ।।रुपम० ६
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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