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________________ १७वा वर्ष मुझे लाभ हुआ है। धर्मध्यानमे विघ्न करनेवाले भोग भोगने सम्बन्धी, हे महाभाग्यवान् | मैन आपको जो आमन्त्रण दिया तत्सम्बन्धी अपने अपराधकी नतमस्तक होकर क्षमा मांगता हूँ।" इस प्रकारसे स्तुति करके राजपुरुषकेसरी श्रेणिक विनयसे प्रदक्षिणा करके अपने स्थानको गया। महातपोधन, महामुनि महाप्रज्ञावान्, महायशस्वी, महानिर्ग्रन्थ और महाश्रुत अनाथ मुनिने मगध देशके राजा श्रेणिकको अपने बीते हुए चरित्रसे जो बोध दिया है वह सचमुच अशरणभावना सिद्ध करता है। महामुनि अनाथीसे भोगी हुई वेदना जैसी अथवा उससे अति विशेष वेदनाको भोगते हुए अनन्त आत्माओको हम देखते हैं, यह कैसा विचारणीय है | ससारमे अशरणता और अनन्त अनाथता छायी हुई है, उसका त्याग उत्तम तत्त्वज्ञान और परम शीलका सेवन करनेसे ही होता है। यही मुक्तिका कारणरूप है । जैसे ससारमे रहते हुए अनाथी अनाथ थे, वेसे ही प्रत्येक आत्मा तत्त्वज्ञानकी प्राप्तिके बिना सदैव अनाथ ही है । सनाथ होनेके लिये सद्देव, सद्धर्म और सद्गुरुको जानना आवश्यक है। शिक्षापाठ ८ : सद्देवतत्त्व तीन तत्त्व हमे अवश्य जानने चाहिये। जब तक इन तत्त्वोके सम्बन्धमे अज्ञानता रहती है तब तक आत्महित नही होता । ये तीन तत्त्व है-सदेव, सद्धर्म और सद्गुरु । इस पाठमे सद्देवस्वरूपके विषयमे कुछ कहता हूँ। जिन्हे केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त होता है, जो कर्मसमुदायको महोग्रतपोपध्यानसे विशोधन करके जला डालते हैं, जिन्होने चन्द्र और शखसे भी उज्ज्वल शुक्लध्यान प्राप्त किया है, चक्रवर्ती राजाधिराज अथवा राजपुत्र होते हुए भी जो ससारको एकात अनत शोकका कारण मानकर उसका त्याग करते हैं; जो केवल दया, शाति, क्षमा, वीतरागता और आत्मसमृद्धिसे त्रिविध तापका नाश करते है, संसारमे मुख्य माने जानेवाले ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अतराय इन चार कर्मोको भस्मीभूत करके जो स्व-स्वरूपमे विहार करते हैं, जो सर्व कर्मोके मूलको जला डालते है, जो केवल मोहिनीजनित कर्मका त्याग करके निद्रा जैसी तीन वस्तुको एकातत दूर करके शिथिल कर्मोके रहने तक उत्तम शीलका सेवन करते है, जो विरागतासे कर्मग्रीष्मसे अकुलाते हुए पामर प्राणियोको परम शाति प्राप्त होनेके लिये शुद्धबोधबीजका मेघधारा वाणीसे उपदेश करते हैं, किसी भी समय किंचित्मात्र भी ससारी वैभव विलासका स्वप्नाश भी जिनको नही रहा है, जो कर्मदलका क्षय करनेसे पहले छद्मस्थता मानकर श्रीमुखवाणीसे उपदेश नही करते, जो पाँच प्रकारके अतराय, हास्य, रति, अरति, भय, जुगुप्सा, शोक, मिथ्यात्व, अज्ञान, अप्रल्गख्यान, राग, द्वेष, निद्रा और काम इन अठारह दूषणोंसे रहित हैं, जो सच्चिदानन्द स्वरूपमे विराजमान हैं, और जिनमे महोद्योतकर बारह गुण प्रकट होते हैं, जिनका जन्म, मरण और अनन्त ससार चला गया है, उन्हे निर्ग्रन्थ आगममे सदेव कहा है। वे दोषरहित शुद्ध आत्मस्वरूपको प्राप्त होनेसे पूजनीय परमेश्वर कहलाते है । जहाँ अठारह दोषोमेसे एक भी दोष होता है वहाँ सद्देवका स्वरूप नही है। इस परम तत्त्वको उत्तम सूत्रोंसे विशेष जानना आवश्यक है । शिक्षापाठ ९ : सद्धर्मतत्त्व अनादिकालसे कर्मजालके बन्धनसे यह आत्मा ससारमे भटका करता है । समयमात्र भी इसे सच्चा सुख नही है। यह अधोगतिका सेवन किया करता है, और अधोगतिमे गिरते हुए आत्माको धारण करनेवाली जो वस्त है उसका नाम 'धर्म' है। इस धर्मतत्त्वके सर्वज्ञ भगवानने भिन्न-भिन्न भेद कहे हैं। उनमेसे मुख्य दो है-१. व्यवहार धर्म, २ निश्चय धर्म ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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