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________________ २४ वो वर्ष २९३ हो जानेसे चाहे जैसे वर्तन करते है, व्रत नियमोका कोई नियम नही रखा, जात-पातका कोई प्रसग नही है, हमसे विमुख जगतमे किसीको नहीं माना, हमारे सन्मुख ऐसे सत्सगी नही मिलनेसे खेद रहा करता है, सपत्ति पूर्ण है इसलिये सपत्तिकी इच्छा नही है, अनुभूत शब्दादि विषय स्मृतिमे आनेसे-अथवा ईश्वरेच्छासे उनकी इच्छा नही रही है, अपनी इच्छासे थोडी ही प्रवृत्ति की जाती है, हरि इच्छित क्रम जैसे चलाता है वैसे चलते है, हृदय प्राय शून्य जैसा हो गया है, पाँचो इद्रियाँ शून्यरूपसे प्रवृत्त होती रहती हैं । नय, प्रमाण इत्यादि शास्त्रभेद याद नहीं आते, कुछ पढते हुए चित्त स्थिर नही रहता, खानेकी, पीनेकी, बैठनेको, सोनेकी, चलनेकी और बोलनेकी वृत्तियाँ अपनी इच्छानुसार प्रवृत्ति करती रहती है, मन अपने अधीन है या नहीं, इसका यथायोग्य भान नहीं रहा। इस प्रकार सर्वथा विचित्र उदासीनता आनेसे चाहे जैसी प्रवृत्ति की जाती है । एक प्रकारसे पूरा पागलपन है। एक प्रकारसे उस पागलपनको कुछ छिपाकर रखते है, और जितना छिपाकर रखा जाता है उतनी हानि है । योग्य प्रवृत्ति करते हैं या अयोग्य इसका कुछ हिसाब नही रखा। आदिपुरुषमे अखड प्रेमके सिवाय दूसरे मोक्षादि पदार्थोकी आकाक्षाका भग हो गया है । इतना सब होते हुए भी मनमानी उदासीनता नही है, ऐसा मानते है । अखड प्रेमखुमारी जैसी प्रवाहित होनी चाहिये वैसी प्रवाहित नही होती, ऐसा समझते है। ऐसा करनेसे वह अखड प्रेमखुमारी प्रवाहित होगी ऐसा निश्चलतासे जानते हैं, परन्तु उसे करनेमे काल कारणभूत हो गया है, और इस सबका दोप हमे है या हरिको है, ऐसा दृढ निश्चय नही किया जा सकता। इतनी अधिक उदासीनता होनेपर भी व्यापार करते है, लेते है, देते है, लिखते हैं, पढ़ते है, सम्भालते है और खिन्न होते है, और फिर हँसते है-जिसका ठिकाना नही ऐसी हमारो दशा है। और इसका कारण मात्र यही है कि जब तक हरिकी सुखद इच्छा नही मानी तब तक खेद मिटनेवाला नहीं है। (अ) समझमे आता है, समझते हैं, समझेंगे, परतु हरि ही सर्वत्र कारणरूप है। जिस मुनिको आप समझाना चाहते है, वह अभी योग्य है, ऐसा हम नही जानते । हमारी दशा अभी ऐसी नही है कि मद योग्यको लाभ करे, हम अभी ऐसा जजाल नही चाहते, उसे नही रखा, और उन सबका कारोबार कैसे चलता है, इसका स्मरण भी नहीं है । ऐसा होनेपर भी हमे उन सबकी अनुकपा आया करती है, उनसे अथवा प्राणीमात्रसे मनसे भेदभाव नही रखा, और रखा भी नही जा सकता। भक्तिवाली पुस्तकें कभी कभी पढते है, परन्तु जो कुछ करते है वह सब बिना ठिकानेकी दशासे करते हैं। हम अभी प्राय. आपके पत्रोका समयसे उत्तर नही लिख सकते, तथा पूरी स्पष्टताके साथ भी नही लिखते । यह यद्यपि योग्य तो नही है, परन्तु हरिकी ऐसी इच्छा है, जिससे ऐसा करते हैं। अब जब समागम होगा, तब आपको हमारा यह दोप क्षमा करना पड़ेगा, ऐसा हमे भरोसा है। और यह तब माना जायेगा कि जब आपका सग फिर होगा। उस सगकी इच्छा करते है, परन्तु जैसे योगसे होना चाहिये वैसे योगसे होना दुर्लभ है । आप जो भादोमे इच्छा रखते हैं, उससे हमारी कुछ प्रतिकूलता नही है, अनुकलता है। परन्तु उस समागममे जो योग चाहते है, उसे होने देनेकी यदि हरिकी इच्छा होगी और समागम होगा तभी हमारा खेद दूर होगा ऐसा मानते है। दशाका सक्षिप्त वर्णन पढकर, आपको उत्तर न लिखा गया हो उसके लिये क्षमा देनेकी विज्ञापना करता हूँ। ___ प्रभुको परम कृपा है। हमे किसीसे भेदभाव नही रहा, किसीके सम्बन्धमे दोपद्धि नही आती. मुनिके विषयमे हमे कोई हलका विचार नही है, परन्तु हरिकी प्राप्ति न हो ऐसी प्रवृत्तिम वे पड़े हैं। अकेला वीजज्ञान ही उनका कल्याण करे ऐसी उनकी और दूसरे वहुतसे मुमुक्षुओकी दशा नहीं है । साथमे 'सिद्धात
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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