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________________ ३४६ श्रीमद् राजचन्द्र इस प्रश्नके सिवाय बाकीके पत्रोका उत्तर अनुक्रमसे लिखनेका विचार होते हुए भी अभी उसे समागममे पूछने योग्य समझते है, अर्थात् यह जताना अभी योग्य लगता है। दूसरे भी जो कोई परमार्थसम्बन्धी विचार-प्रश्न उत्पन्न हो उन्हे लिख रखना शक्य हो तो लिख रखनेका विचार योग्य है। पूर्वकालमे आराधित, जिसका नाम मात्र उपाधि है ऐसी समाधि उदयरूपसे रहती है । अभी वहाँ पठन, श्रवण और मननका योग किस प्रकारका होता है ? आनन्दघनजीके दो पद्य स्मृतिमे आते है, उन्हे लिखकर अब यह पत्र समाप्त करता हूँ। इणविध परखी मन विसरामी जिनवर गुण जे गावे। दीनबन्धुनी महेर नजरथी, आनंदघन पद पावे ॥ हो मल्लिजिन सेवक केम अवगणीए। मन महिलानु रे वहाला उपरे, बीजां काम करत, जिन थई जिनवर जे आराधे, ते सही जिनवर होवे रे। भुंगी ईलिकाने चटकावे, ते भृगी जग जोवे रे॥ -श्री आनन्दघन ३९४ बबई, श्रावण वदी १०, १९४८ मन महिलानु रे वहाला उपरे, बीजां काम करत । तेम श्रुतधर्मे रे मन दृढ धरे, ज्ञानाक्षेपकवंत ॥-धन० घरसम्बन्धी दूसरे समस्त कार्य करते हुए भी जैसे पतिव्रता (महिला शब्दका अर्थ) स्त्रीका मन अपने प्रिय भरतारमे लीन रहता है, वैसे सम्यग्दृष्टि जीवका चित्त ससारमे रहकर समस्त कार्य प्रसंगोको करते हुए भी ज्ञानीसे श्रवण किये हुए उपदेशधर्ममे तल्लीन रहता है। समस्त ससारमे स्त्रीपुरुषके स्नेहको प्रधान माना गया है, उसमे भी पुरुषके प्रति स्त्रीके प्रेमको किसी प्रकारसे भी उससे विशेष प्रधान माना गया है, और उसमे भी पतिके प्रति पतिव्रता स्त्रीके स्नेहको प्रधानमे, भी प्रधान माना गया है। वह स्नेह ऐसा प्रधान-प्रधान किसलिये माना गया है ? तब जिसने सिद्धान्तको प्रबलतासे प्रदर्शित करनेके लिये उस दृष्टातको ग्रहण किया है, ऐसा सिद्धान्तकार कहता है कि हमने उस स्नेहको इसलिये प्रधानमे भी प्रधान समझा है कि दूसरे सभी घर सम्बन्धी (और दूसरे भी) काम करते हुए भी उस पतिव्रता महिलाका चित्त पतिमे हो लीनरूपसे, प्रेमरूपसे, स्मरणरूपसे, ध्यानरूपसे, इच्छारूपसे रहता है। परन्तु सिद्धान्तकार कहता है कि इस स्नेहका कारण तो ससार प्रत्ययी है, और यहाँ तो उसे अससार-प्रत्ययी करनेके लिये कहना है, इसलिये वह स्नेह लोनरूपसे, प्रेमरूपसे, स्मरणरूपसे, ध्यानरूपसे, इच्छारूपसे जहाँ करने योग्य है, जहाँ वह स्नेह अससार परिणामको प्राप्त होता है उसे कहते है। वह स्नेह तो पतिव्रतारूप मुमुक्षुको ज्ञानी द्वारा श्रवण किये हुए उपदेशादि धर्मके प्रति उसी प्रकारसे करना योग्य है, और उसके प्रति उस प्रकारसे जो जीव रहता है, तब 'कान्ता' नामको समकित सम्बन्धी दृष्टिमे वह जीव स्थित है, ऐसा जानते हैं । १ भावार्थ-इस प्रकार परीक्षा करके अठारह दोषोंसे रहित देख करके मनको विश्राम देनेवाले जिनवरका जो गुणगान करता है, वह दीनवन्वकी कृपादृष्टिसे आनदघनपद-मोक्ष पाता है । हे मल्लिनाथ । सेवककी उपेक्षा किसलिये।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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