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________________ श्रीमद राजचन्द्र 'ईश्वर सिद्ध हुए बिना अर्थात् कर्मफलदातृत्व आदि किसी भी ईश्वर के सिद्ध हुए बिना जगतकी व्यवस्था रहना सम्भव नही है', ऐसे अभिप्राय के विषयमे निम्नलिखित विचारणीय है। 7 यदि कर्मके फलको ईश्वर देता है, ऐसा मानें तो इसमे ईश्वरकी ईश्वरता ही नही रहती, क्योकि दूसरेको फल देने आदिके प्रपचमे प्रवृत्ति करते हुए ईश्वरको देह आदि अनेक प्रकारका सग होना संभव है: और इससे यथार्थ शुद्धताका भग होता है । मुक्त जीव जैसे निष्क्रिय है अर्थात् परभाव आदिका कर्ता नहीहै, यदि परभाव आदिका कर्ता हो तब तो ससारकी प्राप्ति होती है, वैसे ही ईश्वर भी दूसरेको फल देनेरूप आदि क्रियामे प्रवृत्ति करे तो उसे भी परभाव आदिके कर्तृत्वका प्रसंग आता है, और मुक्त जीवकी अपेक्षा उसका न्यूनत्व ठहरता है, इससे तो उसकी ईश्वरताका ही उच्छेद करने जैसी स्थिति होती है। ५५६. - फिर'जोव और ईश्वरका स्वभावभेद मानते हुए भी अनेक दोषोका सभव है । दोनोको द चैतन्यस्वभाव मानें तो दोनो समान धर्म के कर्ता हुए, उसमे ईश्वर जगत आदिकी रचना करे अथवा कर्मका फल देनेरूप कार्य करे और मुक्त गिना जाये, और जीव एक मात्र देह आदि सृष्टिकी रचना करे, और अपने कर्मोंका फल पानेके लिये ईश्वराश्रय ग्रहण करे, तथा बधनमे माना जाये, यह बात यथार्थ मालूम नही होती । ऐसी विषमता कैसे सभवित हो ? फिर जीवको अपेक्षा ईश्वरकी सामर्थ्य विशेष मानें तो भी विरोध आता है । ईश्वरको शुद्ध चैतन्यस्वरूप मानें तो शुद्ध चैतन्य ऐसे मुक्तजीवमे और उसमे भेद नही आना चाहिये, और ईश्वरसे कर्मका फल देने आदि कार्य नही होने चाहिये, अथवा मुक्त जीवसे भी वे कार्य होने चाहिये । और यदि ईश्वरको अशुद्ध चैतन्यस्वरूप मानें तो तो ससारी जीवो जैसी उसकी स्थिति ठहरे, वहाँ फिर सर्वज्ञ आदि गुणोका सभव कहाँसे हो ? अथवा देहधारी सर्वज्ञकी भाँति उसे 'देहधारी सर्वज्ञ ईश्वर' मानें तो भी सर्व कर्मफलदातृत्वरूप 'विशेष स्वभाव' ईश्वरमे किस गुणके कारण और देह तो नष्ट होने योग्य है, इससे ईश्वरकी भी देह नष्ट हो जाये, और वह मुक्त होनेपर कर्म फलदातृत्व न रहे, इत्यादि अनेक प्रकारसे ईश्वरको कर्मफलदातृत्व कहते हुए दोष आते हैं, और ईश्वरको वैसे स्वरूपसे मानते हुए उसकी ईश्वरताका उत्थापन करनेके समान होता है । (८०) मानना योग्य हो ? ईश्वर सिद्ध यया विना, जगत नियम नहि होय । पछी शुभाशुभ कर्मनां भोग्यस्थान नहि कोय ॥८१॥ वैसा फलदाता ईश्वर सिद्ध नही होता इससे जगतका कोई नियम भी नही रहता, और शुभाशुभ ' कर्म भोगनेका कोई स्थान भी नही ठहरता, अत. जीवको कर्मका भोक्तृत्व कहाँ रहा ? ॥ ८१ ॥ समाधान — सद्गुरु उवाच [जीवको अपने किये हुए कर्मोका भोक्तृत्व है इस प्रकार सद्गुरु समाधान करते है :] भावकर्म निज कल्पना, माटे जीववीर्यंनी स्फुरणा, ग्रहण करे चेतनरूप | जडधूप ॥८२॥ जीवको अपने स्वरूपकी भ्राति है वह भावकर्म है, इसलिये चेतनरूप है, और उस भ्रातिका अनुयायी होकर जीव-वीर्य स्फुरित होता है, इससे जड द्रव्य - कर्मकी वर्गणाको, वह, ग्रहण करता है ॥ ८२ ॥ .. कर्म है तो वह क्या समझे कि इस जीवको इस तरह मुझे फल देना है, अथवा उस स्वरूपसे परिणमन करना है ? इसलिये जीव कर्मका भोक्ता होना सम्भव नही हे, इस आशकाका समाधान निम्नलिखित से होगा 1 " 1 जीव अपने स्वरूप अज्ञानसे कर्मका कर्ता है । वह अज्ञान चेतनरूप है, अर्थात् जीवकी अपनी कल्पना है, और उस कल्पनाका अनुसरण करके उसके वीर्यस्वभावकी स्फूर्ति होती है, अथवा उसकी کہ
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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