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________________ परिशिष्ट १ अवतरण स्थल एक अज्ञानीके कोटि अभिप्राय है, और कोटि ज्ञानियोंका एक अभिप्राय है । एक कहे सेवीए विविध किरिया करी, फल अनेकांत लोचन न देखे | फल अनेकांत किरिया करी वापडा, रडवडे चार गतिमांहि लेखे ॥ एक परिनामके न करता दरव दोई, दोई परिनाम एक दर्व न धरतु है । एक करतूति दोई दर्द कबहूँ न करें, दोई करतूति एक दर्व न करतु है । जीव पुद्गल एक खेत अवगाही दोउ, अपनें अपने रूप, कोउ न टरतु है । जड़ परिनामनिको, करता है पुद्गल, चिदानंद चेतन सुभाव आचरतु है ॥ [आनंदघन चोवीशी अनंतजिन स्तवन ] एक देखिये जानिये, [रमि रहिये एकठौर । समल विमल न विचारिये, यह सिद्धि नहि और ॥] [समयसार नाटक जीवद्वार २० पृ० ५० पं० वनारसीदास; जैन ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, बंबई ] [समयसार - नाटक - कर्ताकर्म- क्रियाद्वार १० पृ० ९४] एगे समणे भगवं महावीरे इमीए ओसप्पिणीए चउव्वीसाए तित्थयराणं चरिमतिथ्यरे सिद्धे बुद्धे मुत्ते परिनिव्वुडे (जाव) सव्वदुक्खप्पहीणे । . [ अनाथदास ] [मिगचारियं चरिस्सामि] एवं पुत्ता जहासुखं, [अम्मापिऊर्ह अणुण्णाओ जहाइ उवहिं तओ] (तुठो तूठो रे मुज साहिब जगनो तूठो) ए श्रीपाळनो रास करंतां ज्ञान अमृतरस वठ्यो (वुठो ) रे ॥ मुज० [ठाणांगसूत्र ५३ पृ० १५, आगमोदय समिति ] एनुं स्वप्ने जो दर्शन पामे रे तेनुं मन न चढे बीजे भामे रे । थाय कृष्णनो लेश प्रसंग रे, तेने न गमे संसारनो संग रे ॥१॥ हसतां रमतां प्रगट हरि देखु रे, मारुं जीन्दु सफळ तव लेखूं रे, मुक्तानंदनो नाथ विहारी रे, ओघा जीवनदोरी अमारी रे ॥२॥ [उद्धवगीता क. ८८-७, ८७-७ मुक्तानंदस्वामी ] ऐसा भाव निहार नित, कीजे ज्ञान विचार | मिटे न ज्ञान विचार विन, अंतर-भाव-विकार ॥ कम्मदव्वेहि सम्मं संजोगो होइ जो उ जीवस्स । सो बंधो नायव्वो तस्स विभोगो भवे मुक्खो ॥ [उत्तराध्ययन-१९-८५] [धीपालरास खंड ४ पृ० १८५ विनयविजय यशोविजयजी ] [स्वरोदयज्ञान-चिदानंदजी ] [आचारांग अ० ७. १. नियुक्ति गा० २६० ] ८५३ पृष्ठ - पंक्ति ७०१-३६ ३१७-२४; ३१८-५; ६१४-११ ७१६-१६ २७७-१४ ८४५-१० २५१-१० ५४-३० ४७५-१२ १६४-२७ ७९९-२; ८१७-१५ ८४०-१
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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