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________________ ३२ वाँ वर्ष ८५१ मोहमयी क्षेत्र, कात्तिक सुदी १४, गुरु, १९५५ अभी मैं अमुक मासपर्यन्त यहाँ रहनेका विचार रखता हूँ | मैं यथाशक्ति ध्यान दूंगा। आप मनमे निश्चित रहे। मात्र अन्न-वस्त्र हो तो भी बहुत है । परन्तु व्यवहारप्रतिबद्ध मनुष्यको कितने ही सयोगोंके कारण थोडा-बहुत तो चाहिये, इसलिये यह प्रयत्न करना पड़ा है । तो वह सयोग जब तक उदयमान हो तब तक धर्मकीर्तिपूर्वक बन पाये तो बहुत है। अभी मानसिक वृत्तिकी अपेक्षा बहुत ही प्रतिकूल मार्गमे प्रवास करना पड़ता है । तप्तहृदयसे और शात आत्मासे सहन करनेमे ही हर्ष मानता हूँ। ॐ शाति ८५२ बम्बई, मार्गशीर्ष सुदी ३, शुक्र, १९५५ ॐनम प्राय कल रातकी डाकगाडीसे यहाँसे उपरामता (निवृत्ति) होगी। थोडे दिन तक बहुत करके ईडर क्षेत्रमे स्थिति होगी। मुनियोको यथाविधि नमस्कार कहियेगा। वीतरागोके मार्गकी उपासना कर्तव्य है। ८५३ ईडर, मार्गशीर्ष सुदी १४, सोम, १९५५ ॐ नमः 'पचास्तिकाय' यहां भेज सकें तो भेजियेगा । भेजनेमे विलम्ब होता हो तो न भेजियेगा। 'समयसार' मल प्राकृत (मागधी) भाषामे हे। तथा 'स्वामी कातिकेयानुप्रेक्षा' ग्रन्थ भी प्राकृत भाषामे है। वह यदि प्राप्त हो सके तो 'पचास्तिकाय के साथ भेजियेगा। थोड़े दिन यहाँ स्थिति सभव है। जैसे बने वैसे वीतराग श्रुतका अनुप्रेक्षण (चिन्तन) विशेष कर्तव्य है। प्रमाद परम रिपु है, यह वचन जिन्हे सम्यक निश्चित हुआ है वे पुरुष कृतकृत्य होने तक निर्भयतासे वर्तन करनेके स्वप्नकी भी इच्छा नहीं करते। राज्यचंद्र।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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