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________________ १७ वो वर्ष १२३ जाते हैं । सक्षेपमे सर्व प्रकारको सिद्धि, पवित्रता, महाशील, निर्मल गहन और गभीर विचार, स्वच्छ वैराग्यकी भेंट ये सब तत्त्वज्ञानसे मिलते है । शिक्षापाठ ८६ : तत्त्वावबोध-भाग ५ एक बार एक समर्थ विद्वानसे निग्रंथ प्रवचनकी चमत्कृतिके सबधमे बातचीत हुई। उसके सबधमे उस विद्वानने बताया-"मै इतना तो मान्य रखता हूँ कि महावीर एक समर्थ तत्त्वज्ञानी पुरुप थे, उन्होने जो बोध दिया है, उसे ग्रहण करके प्रज्ञावान पुरुषोने अग, उपागकी योजना की है, उनके जो विचार है वे चमत्कृतिसे भरे हुए है, परन्तु इससे मै यह नहीं कह सकता कि इनमे सारी सृष्टिका ज्ञान निहित है । ऐसा होने पर भी यदि आप इस सबधमे कुछ प्रमाण देते हो तो मैं इस बात पर कुछ श्रद्धा कर सकता हूँ।" इसके उत्तरमे मैंने यह कहा कि मैं कुछ जैन वचनामृतको यथार्थ तो क्या परन्तु विशेष भेदसे भी नही जानता, परन्तु सामान्य भावसे जो जानता हूँ उससे भी प्रमाण अवश्य दे सकता हूँ। फिर नवतत्वविज्ञानसबधी बातचीत निकली। मैने कहा कि इसमे सारी सृष्टिका ज्ञान आ जाता है, परन्तु यथार्थ समझनेकी शक्ति चाहिये । फिर उन्होने इस कथनका प्रमाण मॉगा, तब मैने आठ कर्म कह बताये। उसके साथ यह सूचित किया कि इनके सिवाय इनसे भिन्न भाव बतानेवाला कोई नौवाँ कर्म खोज निकाले । पाप और पुण्यकी प्रकृतियोको बताकर कहा कि इनके सिवाय एक भी अधिक प्रकृति खोज निकालें । यो कहते कहते अनुक्रमसे बात चलायी। पहले जीवके भेद कहकर पूछा कि क्या इनमे आप कुछ न्यूनाधिक कहना चाहते हैं ? अजीवद्रव्यके भेद कहकर पूछा कि क्या आप इससे कुछ विशेष कहते हैं ? यो नवतत्त्वसबधी बातचीत हुई तब उन्होने थोडी देर विचार करके कहा-“यह तो महावीरकी कहनेकी अद्भुत चमत्कृति है कि जीवका एक भी नया भेद नही मिलता, इसी तरह पापपुण्य आदिको एक भी विशेष प्रकृति नहीं मिलती, और नौवॉ कर्म भी नही मिलता । ऐसे ऐसे तत्त्वज्ञानके सिद्धात जैनदर्शनमे है यह मेरे ध्यानमे नही था । इसमे सारो सृष्टिका तत्त्वज्ञान कुछेक अशोमे अवश्य आ सकता है।" शिक्षापाठ ८७ : तत्त्वावबोध-भाग ६ . इसका उत्तर हमारी ओरसे यह दिया गया कि अभी आप जो इतना कहते है वह भी तब तक कि जब तक आपके हृदयमे जैनधर्मके तत्त्वविचार नही आये है, परन्तु मै मध्यस्थतासे सत्य कहता है कि इसमे जो विशुद्ध ज्ञान बताया है वह कही भी नही है, और सर्व मतोने जो ज्ञान बताया है वह महावीरके तत्त्वज्ञानके एक भागमे आ जाता है। इनका कथन स्याद्वाद है, एकपक्षी नही। आपने यो कहा कि इसमे सारी सृष्टिका तत्त्वज्ञान कुछेक अशोमे अवश्य आ सकता है, परतु यह मिश्र वचन है। हमारी समझानेको अल्पज्ञतासे ऐसा अवश्य हो सकता है, परन्तु इससे इन तत्त्वोमे कुछ अपूर्णता है ऐसा तो है ही नहीं। यह कुछ पक्षपाती कथन नहीं है। विचार करनेपर सारी सृष्टिमेसे इनके सिवाय कोई दसवाँ तत्त्व खोजनेसे कभी मिलनेवाला नही है। इस सवधमे प्रसगोपात्त हमारी जब बातचीत और मध्यस्थ चर्चा होगी तब निःशकता होगी। उत्तरमे उन्होने कहा कि इसपरसे मुझे यह तो निःशकता है कि जैन एक अद्भुत दर्शन है। आपने मुझे श्रेणिपूर्वक नवतत्त्वके कुछ भाग कह बताये, इससे मै यह वेधडक कह सकता हूँ कि महावीर गुप्तभेदको प्राप्त पुरुष थे। इस प्रकार थोड़ीसी वात करके 'उप्पन्ने वा', 'विगमे वा', 'धुवेइ वा' यह लब्धिवाक्य उन्होने मुझे कहा। यह कहनेके बाद उन्होने यो वताया- "इन शब्दोके सामान्य अर्थमे तो कोई चमत्कृति नहीं दीखती। उत्पन्न होना, नाश होना और अचलता ऐसा इन तीन
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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