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________________ ६६ श्रीमद राजचन्द्र १९४ ६५ मोरबी, ज्येष्ठ सुदी १०, सोम, १९४५ . आपका अतिशय आग्रह है और न हो तो भी एक धर्मनिष्ठ आत्माको यदि मुझसे कुछ शाति होती हो तो एक पुण्य समझकर आना चाहिये। और ज्ञानीदृष्ट होगा तो मैं जरूर कुछ ही दिनोमे आता है। विशेष समागममे । अहमदावाद, ज्येष्ठ वदी १२, मंगल, १९४५ मैने आपको ववाणियावंदरसे पुनर्जन्मसबधी परोक्षज्ञानकी अपेक्षासे दो-एक विचार लिखे थे, और इस विषयमे अवकाश पाकर कुछ बतानेके बाद प्रत्यक्ष अनुभवगम्य ज्ञानसे इस विषयका जो कुछ निश्चय मेरी समझमे आया है उसे बतानेकी इच्छा रखी है।। वह पत्र आपको ज्येष्ठ सुदी पचमीको मिल गया होगा। अवकाश प्राप्तकर कुछ उत्तर देना ठीक लगे तो उत्तर, नही तो पहुँच मात्र लिखकर प्रशम दीजियेगा, यह विज्ञापना है। निग्रंथ द्वारा उपदिष्ट शास्त्रोकी शोधके लिये सातेक दिनोसे मेरा यहाँ आना हुआ है। धर्मोपजीवनके इच्छुक रायचन्द रवजीभाईके यथाविधि प्रणाम । ६७ वढवाणकेम्प, आषाढ सुदी ८, शनि, १९४५ आत्माका कल्याण खोजनेके लिये आपको जो अभिलाषाएँ दिखायो देती हैं, वे मुझे प्रसन्न करती है। धर्म प्रशस्त ध्यान करनेके लिये विज्ञापन करके अब यह पत्र पूरा करता हूँ। रायचन्द ६८ बजाणा-काठियावाड, आषाढ सुदी १५, शुक्र, १९४५ आपका आपाढ सुदी ७ का लिखा हुआ पत्र मुझे वढवाणकेम्पमे मिला। उसके बाद मेरा यहाँ आना हुआ, इसलिये पहुंच लिखनेमे विलम्ब हुआ । पुनर्जन्मसवधी मेरे विचार आपको अनुकूल होनेसे मुझे इस विषयमे आपकी सहायता मिली । आपने अत करणीय-आत्मभावजन्य जो अभिलाषा प्रदर्शित की है उसे सत्पुरुष निरतर रखते आये हैं, उन्होने मन, वचन, काया और आत्मासे वैसी दशा प्राप्त की है, और उस दशाके प्रकाशसे दिव्यताको प्राप्त आत्माने वाणी द्वारा सर्वोत्तम आध्यात्मिक वचनामृत प्रदर्शित किये हैं, जिनका आप जैसे सत्पात्र मनुष्य निरतर सेवन करते हैं, और यही अनन्तभवके आत्मिक दुखको दूर करनेका परमोषध है। सभी दर्शन पारिणामिकभावसे मुक्तिका उपदेश करते हैं, यह नि सशय है, परन्तु यथार्थदृष्टि हुए बिना सब दर्शनोका तात्पर्यज्ञान हृदयगत नही होता । जिसके होनेके लिये सत्पुरुपोकी प्रशस्त भक्ति, उनके पादपकज और उपदेशका अवलवन और निर्विकार ज्ञानयोग आदि जो साधन हैं, वे शुद्ध उपयोगसे मान्य होने चाहिये। पुनर्जन्मका प्रत्यक्ष निश्चय तथा अन्य आध्यात्मिक विचार अब फिर प्रसगानुकूल प्रदर्शित करनेको आज्ञा लेता हूँ। बुद्ध भगवानका चरित्र मनन करने योग्य है, यह मानो निष्पक्षपाती कथन है। कितने ही आध्यात्मिक तत्त्वोसे भरपूर वचनामृत अव लिख सकूँगा। धर्मोपजीवनके इच्छुक रायचन्दके विनययुक्त प्रणाम ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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