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________________ २२ वॉ वर्ष अशुद्ध उपयोगके बिना नहीं होता, और अशुद्ध उपयोग भूतकालको किसी भी सलग्नताके बिना नही होत वर्तमान कालमेसे हम एक-एक पलको निकालते जायें और देखते जायें, तो प्रत्येक पल भिन्न-भिन्न स्वरू से बीता हुआ मालूम होगा। (उसके भिन्न-भिन्न होनेका कोई कारण तो होगा ही।) एक मनुष्यने ऐ दृढ सकल्प किया कि यावज्जीवन स्त्रीका चिंतन भी मुझे करना नही है, फिर भी पाँच पल न बीत प कि उसका चिंतन हो गया तो फिर उसका कारण होना चाहिये। मुझे जो शास्त्रसबधी अल्प बोध हुआ उससे यह कह सकता हूँ कि वह पूर्वकर्मका किसी भी अशमे उदय होना चाहिये। कैसे कर्मका? तो व सकूगा कि मोहनीयकर्मका | उसकी किस प्रकृतिका ? तो कह सकूँगा कि पुरुषवेदका । (पुरुषवेदको पर प्रकृतियाँ है ।) पुरुषवेदका उदय दृढ सकल्पसे रोकनेपर भी हुआ, उसका कारण अव कहा जा सकेगा वह कोई भूतकालका होना चाहिये, और अनुपूर्वोसे उसके स्वरूपका विचार करनेसे पुनर्जन्म सिद्ध होग यहाँ इस बातको बहुत दृष्टातोंसे कहनेकी मेरी इच्छा थी, परन्तु निर्धारितसे अधिक कहा गया है, मैं आत्माको जो बोध हुआ उसे मन यथार्थ नही जान सकता और मनके बोधको वचन यथार्थ नही कह सकते वचनका कथनबोध भी कलम नही लिख सकती, ऐसा होनेसे और इस विषयके सवधमे कुछ पारिभाषि शब्दोके उपयोगकी आवश्यकता होनेसे अभी इस विषयको अपूर्ण छोड़ देता हूँ। यह अनुमानप्रमाण व गया। प्रत्यक्ष प्रमाणसबधी ज्ञानीदृष्ट होगा, तो उसे फिर, अथवा प्रत्यक्ष समागम होगा तब कुछ बता सकंग आपके उपयोगमे रम रहा है, फिर भी यहाँ दो-एक वचन प्रसन्नतार्थ लिखता हूँ' १ सबकी अपेक्षा आत्मज्ञान श्रेष्ठ है । २ धर्मविषय, गति, आगति निश्चयसे है। ३ ज्यो ज्यो उपयोगकी शुद्धता होती जाती है, त्यो-त्यो आत्मज्ञान प्राप्त होता जाता है। ४ इसके लिये निर्विकार दृष्टिकी आवश्यकता है। ५ 'पुनर्जन्म है', यह योगसे, शास्त्रसे और सहजरूपसे अनेक सत्पुरुपोको सिद्ध हुआ है। इस कालमे इस विषयमे अनेक पुरुषोको नि शकता नही होती इसके कारण मात्र सात्त्विकता न्यूनता, विविधतापकी मूर्च्छना, 'श्रीगोकुलचरित्र'मे आपको बतायी हुई निर्जनावस्थाको कमी, सत्सग अभाव, स्वमान और अयथार्थ दृष्टि हैं। आपकी अनुकूलता होगी तो इस विषयमे विशेष फिर बताऊँगा। इससे मुझे आत्मोज्ज्वलताव परम लाभ है । इसलिये आपको अनुकूल होगा ही। अवकाश हो तो दो चार बार इस पत्रका मनन होने मेरा कहा हुआ अल्प आशय आपको बहुत दृष्टिगोचर होगा। शैलीके कारण विस्तारसे कुछ लिखा है, पि भी जैसा चाहिये वैसा नही समझाया गया ऐसा मेरा मानना है । परन्तु मै समझता हूँ कि धीरे-धीरे आप समक्ष सरलरूपमे रख सकूँगा। बुद्ध भगवानका जोवनचरित्र मेरे पास नही आया। अनुकूलता हो तो भिजवानेकी सूचना करें सत्पुरुषोंके चरित्र दर्पणरूप है । बुद्ध और जैनके उपदेशमे महान अतर है। सब दोषोकी क्षमा चाहकर यह पत्र पूरा (अपूर्ण स्थितिमे) करता हूँ। आपकी आज्ञा होगी तो ऐस वक्त निकाला जा सकेगा कि जिससे आत्मत्व दृढ हो। असुगमतासे लेख दूषित हुआ है, परन्तु कितनी ही निरुपायता थी। नही तो सरलताका उपयो करनेसे आत्मत्वकी प्रफुल्लितता विशेष हो सकती है। वि० धर्मजीवनके इच्छुक रायचद रवजीभाईके विनयभावसे प्रशस्त प्रणाम
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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