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व्याख्यानसार-१
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२०६. 'काल' के 'अणु' लोकप्रमाण असंख्यात हैं । उस अणुमें रुक्ष अथवा स्निग्ध गुण नहीं हैं । इसलिये एक अणु दूसरे में नहीं मिलता, और प्रत्येक पृथक पृथक रहता है । परमाणु- पुद्गलमें वह गुण होनेसे मूल सत्ता कायम रहकर उसका ( परमाणु-पुद्गलका) स्कंध होता है ।
२०७. धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, (लोक) आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय उसके भी असंख्यात प्रदेश हैं । और उसके प्रदेश में रुक्ष अथवा स्निग्ध गुण नहीं है, फिर भी वे कालकी तरह प्रत्येक अणु अलग अलग रहनेके बदले एक समूह होकर रहते हैं । इसका कारण यह है कि काल प्रदेशात्मक नहीं हैं, परन्तु अणु होकर पृथक् पृथक् है, और धर्मास्तिकाय आदि चार द्रव्य प्रदेशात्मक है ।
२०८. वस्तुको समझानेके लिये अमुक नयसे भेदरूपसे वर्णन किया गया है । वस्तुतः वस्तु, उसके गुण और पर्याय यों तोन पृथक् पृथक् नहीं हैं, एक ही है । गुण और पर्यायके कारण वस्तुका स्वरूप समझमें आता है । जैसे मिस्री यह वस्तु, मिठास यह गुण और खुरदरा आकार यह पर्याय है । इन तीनोंको लेकर मिस्त्री है | मिठासवाले गुणके बिना मिस्री पहचानी नहीं जा सकती। वैसा ही कोई खुरदरे आकारवाला टुकड़ा हो, परन्तु उसमें खारेपनका गुण हो तो वह मिस्री नहीं परन्तु नमक है । इस जगह पदार्थकी प्रतीति अथवा ज्ञान, गुणके कारण होता है, इस तरह गुणी और गुण भिन्न नहीं है । फिर भी अमुक कारणको लेकर पदार्थका स्वरूप समझानेके लिये भिन्न कहे गये हैं ।
२०९. गुण और पर्यायके कारण पदार्थ है । यदि वे दोनों न हों तो फिर पदार्थका होना न होनेके बराबर है, क्योंकि वह किस कामका है ?
२१०. एक दूसरेसे विरुद्ध पदवाली ऐसी त्रिपदी पदार्थमात्रमें रही हुई है । ध्रुव अर्थात् सत्ता-अस्तित्व पदार्थका सदा है। उसके होनेपर भी पदार्थ में उत्पाद और व्यय ये दो पद रहते हैं । पूर्व पर्यायका व्यय और उत्तर पर्यायका उत्पाद हुआ करता है ।
२११. इस पर्यायके परिवर्तनसे काल मालूम होता है । अथवा उस पर्यायका परिवर्तन होने में काल सहकारी है ।
२१२. प्रत्येक पदार्थमें समय-समयपर षटचक्र उठता है । वह यह कि संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि, अनंतगुणवृद्धि, संख्यातगुणहानि, असंख्यातगुणहानि और अनंतगुणहानि; जिसका स्वरूप श्री वीतरागदेव अवाक्गोचर कहते हैं ।
२१३. आकाशके प्रदेशकी श्रेणि सम है । विषम मात्र एक प्रदेशकी विदिशाको श्रेणि है । समश्रेणि छः हैं और वे दो प्रदेशी हैं। पदार्थमात्रका गमन समश्रेणिसे होता है, विपमश्रेणिसे नहीं होता । क्योंकि आकाशके प्रदेशकी समश्रेण है । इसी तरह पदार्थमात्र में अगुरुलघु धर्म है । उस धर्मके कारण पदार्थ विषमश्रेणिसे गमन नहीं कर सकता ।
२१४. चक्षुरिद्रिके सिवाय दूसरी इंद्रियोंसे जो जाना जा सकता है उसका समावेश जाननेमें होता है ।
२१५. चक्षुरंद्रियसे जो देखा जाता है वह भी जानना है । जव तक संपूर्ण जानने-देखने में नहीं आता तब तक जानना अधूरा माना जाता है, केवलज्ञान नहीं माना जाता ।
२१६. जहाँ त्रिकाल भववोध है वहाँ सम्पूर्ण जानना होता है ।