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________________ ३७४ श्रीमद राजचन्द्र जिसके हो सकते हैं, ऐसे अभिप्रायको भ्राति के कारणरूप असत्दर्शनकी आराधना करनेसे पूर्वकालमे इस जीवने अपना स्वरूप जैसा है वैसा नही जाना । उसे उपर्युक्त एकान्त - अयथार्थरूपसे जानकर आत्मामे अथवा आत्माके नामसे ईश्वरादिमे पूर्वकालमे जीवने आग्रह किया है, ऐसा जो असत्सग, स्वेच्छाचारिता और मिथ्यादर्शनका परिणाम है वह जब तक नही मिटता तब तक यह जीव क्लेशरहित शुद्ध असख्य प्रदेशात्मक मुक्त होनेके योग्य नही है, और उस असत्सगादिकी निवृत्ति के लिये सत्सग, ज्ञानीकी आज्ञाका अत्यन्त अगीकार करना और परमार्थस्वरूप आत्मत्वको जानना योग्य है । पूर्वकालमे हुए तीर्थंकरादि ज्ञानोपुरुषोने उपर्युक्त भ्रातिका अत्यन्त विचार करके, अत्यन्त एकाग्रतासे, तन्मयता से जीवस्वरूपका विचार करके जीवस्वरूपमे शुद्ध स्थिति की है । उस आत्मा और दूसरे सब पदार्थोको सर्व प्रकारसे भ्रातिरहित रूपसे जाननेके लिये श्री तीर्थंकरादिने अत्यन्त दुष्कर पुरुषार्थका आराधन किया है । आत्माको एक भी अणुके आहारपरिणाम से अनन्य भिन्न करके उन्होने इस देहमे स्पष्ट ऐसा अनाहारी आत्मा, मात्र स्वरूपसे जीनेवाला ऐसा देखा है । उसे देखनेवाले तीर्थंकरादि ज्ञानी स्वय ही शुद्धात्मा है, तो वहाँ भिन्नरूपसे देखनेका कहना यद्यपि सगत नही है, तथापि वाणीधर्म से ऐसा कहा है । ऐसे अनन्त प्रकारसे विचार करके भी जानने योग्य जो 'चैतन्यघन जीव' है उसे तीर्थकरने दो प्रकार से कहा है, कि जिसे सत्पुरुषसे जानकर, विचार कर, सत्कार करके जीव स्वय उस स्वरूपमे स्थिति करे । तीर्थं - करादि ज्ञानीने पदार्थमात्रको 'वक्तव्य' और 'अवक्तव्य' ऐसे दो व्यवहारधर्मवाला माना है । अवक्तव्यरूपसे जो है वह यहाँ 'अवक्तव्य' ही है । वक्तव्यरूपसे जो जीवका धर्म है उसे सब प्रकारसे कहनेके लिये तीर्थंकरादि समर्थ है, और वह मात्र जीवके विशुद्ध परिणामसे अथवा सत्पुरुष द्वारा जाना जाये, ऐसा जीवका धर्म है, और वही धर्म उस लक्षण द्वारा अमुक मुख्य प्रकारसे इस दोहेमे कहा है । परमार्थके अत्यन्त अभ्याससे वह व्याख्या अत्यन्त स्फुट समझमे आती है, और उसके समझमे आनेपर आत्मत्व भी अत्यन्त प्रगट होता है, तथापि यथावकाश यहाँ उसका अर्थ लिखा है । बबई, चैत्र सुदी १, १९४९ ४३८ 'समता, रमता, ऊरधता, ज्ञायकता, सुखभास । वेदकता, चैतन्यता, ए सब जीव विलास ॥' जिस लक्षणसे कहा है वह सब स्पष्ट अनुभव किया है, और श्री तीर्थंकर ऐसा कहते है कि इस जगतमे इस जीव नामके पदार्थको चाहे जिस प्रकारसे कहा हो वह प्रकार उसकी स्थितिमे हो, इसमे हमारी उदासीनता है । जिस प्रकारसे निराबाधरूपसे उस जीव नाम पदार्थको हमने जाना है, उस प्रकारसे उसे हमने प्रगट कहा है । प्रकारसे बाधारहित कहा है । हमने उस आत्माको ऐसा जाना है, देखा है, हम वही आत्मा हैं । वह आत्मा 'समता' नामके लक्षणसे युक्त है वर्तमान समयमे जो असख्य प्रदेशात्मक चैतन्यस्थिति आत्माकी है, वह पहलेके एक, दो, तीन, चार, दस, संख्यात, असख्यात, अनन्त समयमे थी, वर्तमान मे है और भविष्यकालमे भी उसी प्रकारसे उसकी स्थिति है। किसी भी कालमे उसकी असख्यात प्रदेशात्मकता, चैतन्यता, अरूपित्व इत्यादि समस्त स्वभाव छूटने योग्य नही है, ऐसा जो समत्व, समता वह जिसका लक्षण है, वह जीव है । । पशु, पक्षी, मनुष्यादिकी देहमे वृक्षादिमे जो कुछ रमणीयता दिखायी देती है, अथवा जिससे वे सव प्रगट स्फूर्तिवाले मालूम होते है, प्रगट सुन्दरता समेत लगते है, वह रमता, रमणीयता है लक्षण जिसका वह जीव नामका पदार्थ है। जिसकी विद्यमानता के विना सारा जगत शून्यवत् सम्भव है, ऐसी रमणीयता जिसमे है, वह लक्षण जिसमे घटित होता है, वह जीव है ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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