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________________ ५०२ श्रीमद् राजचन्द्र ___ आत्माके लिये वस्तुत उपकारभूत उपदेश करनेमे ज्ञानीपुरुष सक्षेपसे प्रवृत्ति नही करते, ऐसा होना प्राय सम्भव है, तथापि दो कारणोसे ज्ञानीपुरुष उस प्रकारसे भी प्रवृत्ति करते है-(१) वह उपदेश जिज्ञासु जीवमे परिणमित हो ऐसे सयोगोमे वह जिज्ञासु जीव न रहता हो, अथवा उस उपदेशके विस्तारसे करनेपर भी उसमे उसे ग्रहण करनेकी तथारूप योग्यता न हो, तो ज्ञानीपुरुष उन जीवोको उपदेश करनेमे सक्षेपसे भी प्रवृत्ति करते है। (२) अथवा अपनेको बाह्य व्यवहारका ऐसा उदय हो कि वह उपदेश जिज्ञासु जीवमे परिणमित होनेमे प्रतिवधरूप हो, अथवा तथारूप कारणके बिना वैसा वर्तन कर मुख्यमार्गके विरोधरूप या सशयके हेतुरूप होनेका कारण होता हो तो भी ज्ञानीपुरुष उपदेशमे सक्षेपसे प्रवृत्ति करते है अथवा मौन रहते है। सर्वसंगपरित्याग कर चले जानेसे भी जोव उपाधिरहित नही होता। क्योकि जब तक अतरपरिणतिपर दृष्टि न हो और तथारूप मार्गमे प्रवृत्ति न की जाये तब तक सर्वसगपरित्याग भी नाम मात्र होता है । और वैसे अवसरमे भी अतरपरिणतिपर दृष्टि देनेका भान जीवको आना कठिन है, तो फिर ऐसे गृह व्यवहारमे लौकिक अभिनिवेशपूर्वक रहकर अतरपरिणतिपर दृष्टि दे सकना कितना दुःसाध्य होना चाहिये, यह विचारणीय है, और वैसे व्यवहारमे रहकर जीवको अतरपरिणतिपर कितना बल रखना चाहिये, यह भी विचारणीय है, और अवश्य वैसा करना योग्य है। ___ अधिक क्या लिखें? जितनी अपनी शक्ति हो उस सारी शक्तिसे एक लक्ष्य रखकर, लौकिक अभिनिवेशको कम करके, कुछ भी अपूर्व निरावरणता दीखती नही है, इसलिये 'समझका केवल अभिमान है', इस तरह जीवको समझाकर जिस प्रकार जीव ज्ञान, दर्शन और चारित्रमे सतत जाग्रत हो, वही करनेमे वृत्ति लगाना, और रात-दिन उसी चितनमे प्रवृत्ति करना यही विचारवान जीवका कर्तव्य है, और उसके लिये सत्सग, सत्शास्त्र और सरलता आदि निजगुण उपकारभूत है, ऐसा विचारकर उसका आश्रय करना योग्य है। जब तक लौकिक अभिनिवेश अर्थात् द्रव्यादि लोभ, तृष्णा, दैहिक मान, कुल, जाति आदि सम्बन्धी मोह या विशेषत्व मानना हो, वह बात न छोडनी हो, अपनी बुद्धिसे स्वेच्छासे अमुक गच्छादिका आग्रह रखना हो, तब तक जोवमे अपूर्व गुण कैसे उत्पन्न हो ? इसका विचार सुगम है । अधिक लिखा जा सके ऐसा उदय अभी यहाँ नही है, तथा अधिक लिखना या कहना भी किसी प्रसंगमे होने देना योग्य है, ऐसा है। आपकी विशेष जिज्ञासाके कारण प्रारब्धोदयका वेदन करते हुए जो कुछ लिखा जा सकता था, उसकी अपेक्षा कुछ उदीरणा करके विशेष लिखा है । यही विनती। ६७८ बबई, चैत्र सुदी २, सोम, १९५२ क्षणमे हर्प और क्षणमे शोक हो आये ऐसे इस व्यवहारमे जो ज्ञानोपुरुष समदशासे रहते हैं, उन्हे अत्यन्त भक्तिसे धन्य कहते हैं, और सर्व मुमुक्षुजीवोको इसी दशाकी उपासना करना योग्य है, ऐसा निश्चय देखकर परिणति करना योग्य है । यही विनती । श्री डुगर आदि मुमुक्षुओको नमस्कार। ६७९ बवई, चैत्र सुदी ११, शुक्र, १९५२ सद्गुरुचरणाय नमः आत्मनिष्ठ श्री सोभागके प्रति, श्री सायला । फागुन वदी ६ के परमे लिखे हुए प्रश्नोका समाधान इस पत्रमे सक्षेपसे लिखा है, उसे विचारियेगा।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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