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________________ २८ वा वर्ष ४८५ तो एक दिन मूळी रुङगा । और दूसरे दिन कहेगे तो मूळोसे जानेका विचार करूँगा । लौटते समय सायला रुकना या नहीं ? इसका उस समागममे आपको इच्छानुसार विचार करूँगा। __मूळी एक दिन रुकनेका विचार यदि रखते है तो सायला एक दिन रुकनेमे आपत्ति नही है, ऐसा आप न कहियेगा क्योकि ऐसा करनेसे अनेक प्रकारके अनुक्रमोका भग होना सम्भव है । यही विनती । ६२४ बबई, श्रावण सुदी ३, गुरु, १९५१ किसी दशाभेदसे अमुक प्रतिबन्ध करनेकी मेरी योग्यता नही है। दो पत्र प्राप्त हुए हैं । इस प्रसगमे समागम सम्बन्धी प्रवृत्ति हो सकना योग्य नही है। ६२५ ववाणिया, श्रावण सुदी १०, १९५१ ॐ __ जो पर्याय है वह पदार्थका विशेष स्वरूप है, इसलिये मन पर्यायज्ञानको भी पर्यायाथिक ज्ञान समझकर उसे विशेष ज्ञानोपयोगमे गिना है, उसका सामान्य ग्रहणरूप विपय भासित न होनेसे दर्शनोपयोगमे नही गिना है, ऐसा सोमवारको दोपहरके समय कहा था, तदनुसार जैनदर्शनका अभिप्राय भी आज देखा है। यह बात अधिक स्पष्ट लिखनेसे समझमे आ सकने जैसी है, क्योकि उसे बहुतसे दृष्टातोकी सहचारिता आवश्यक है, तथापि यहाँ तो वैसा होना अशक्य है। मनःपर्याय सम्बन्धी लिखा है वह प्रसग, चर्चा करनेकी निष्ठासे नही लिखा है। सोमवारकी रातको लगभग ग्यारह बजेके बाद जो मुझसे वचनयोगकी अभिव्यक्ति हुई थी उसकी स्मृति रही हो तो यथाशक्ति लिखा जा सके तो लिखियेगा। ६२६ ववाणिया, श्रावण सुदी १२, शुक्र, १९५१ 'निमित्तवासी यह जीव है', ऐसा एक सामान्य वचन है। वह सगप्रसगसे होती हुई जीवको परिणतिको देखते हुए प्राय सिद्धान्तरूप लग सकता है।। सहजात्मस्वरूपसे यथा० ६२७ ववाणिया, श्रावण सुदी १५, सोम, १९५१ ___ आत्मार्थके लिये विचारमार्ग और भक्तिमार्गका आराधन करना योग्य है, परन्तु जिसकी सामर्थ्य विचारमार्गके योग्य नही है उसे उस मार्गका उपदेश देना योग्य नहीं है, इत्यादि जो लिखा है वह योग्य है, तो भी इस विषयमे किञ्चित् मात्र लिखना अभी चित्तमे नही आ सकता। श्री डगरने केवलदर्शनके सम्बन्धमे कही हुई आशका लिखी है, उसे पढा है। दूसरे अनेक प्रकार समझमे आनेके पश्चात् उस प्रकारकी आशका निवृत्त होती है, अथवा वह प्रकार प्राय. समझने योग्य होता है। ऐसी आशका अभी मन्द अथवा उपशान्त करके विशेष निकट ऐसे आत्मार्थका विचार करना योग्य है। ६२८ ववाणिया, श्रावण वदी ६, रवि, १९५१ यहाँ पर्युषण पूरे होने तक स्थिति होना सम्भव है। केवलज्ञानादि इस कालमे हो इत्यादि प्रश्न पहले लिखे थे, उन प्रश्नोपर यथाशक्ति अनुप्रेक्षा तया परस्पर प्रश्नोत्तर श्री डुगर आदिको करना योग्य है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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