SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 578
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८ वॉ वर्ष ४६५ स्थासे प्रवृत्ति करती है। थोडे वर्ष पहले, थोडे समय पहले लेखनशक्ति अति उग्न थी, अब क्या ना यह सूझते सूझते दिनपर दिन व्यतीत हो जाते हैं, और फिर भी जो कुछ लिखा जाता है, वह त या योग्य व्यवस्थापूर्वक लिखा नही जाता, अर्थात् एक आत्मपरिणामके सिवाय दूसरे सर्व परिमे उदासीनता रहती है। और जो कुछ किया जाता है वह यथोचित भानके सौवें अशसे भी नही । ज्यो-त्यो और जो-सो किया जाता है। लिखनेकी प्रवृत्तिको अपेक्षा वाणीकी प्रवृत्ति कुछ ठीक है, आप कुछ पूछना चाहे, जानना चाहे तो उसके विषयमे समागममे कहा जा सकेगा। ___ कुन्दकुन्दाचार्य और आनदधनजीको सिद्धात सम्बन्धी तीन ज्ञान था। कुन्दकुन्दाचार्यजी तो स्थितिमे बहुत स्थित थे। ____ जिन्हे कहने मात्र दर्शन हो, वे सब सम्यग्ज्ञानी नही कहे जा सकते । विशेष अब फिर।' ५८४ । बबई, चैत्र वदी ११, शुक्र, १९५१ "जेम निर्मळता रे रल स्फटिक तणी, तेम ज जीवस्वभाव रे। ते जिन वीरे रे धर्म प्रकाशियो, प्रबळ कषाय अभाव रे॥" विचारवानको सगसे व्यतिरिक्तता परम श्रेयरूप है। ५८५ बंबई, चैत्र वदी ११, शुक्र, १९५१ "जेम निर्मळता रे रत्न स्फटिक तणी, तेम ज जीवस्वभाव रे। ' ते जिन वोरे रे धर्म प्रकाशियो, प्रबळ कषाय अभाव रे ॥" सग नैष्ठिक श्री सोभाग तथा श्री डुगरके प्रति नमस्कारपूर्वक, सहज द्रव्यके अत्यन्त प्रकाशित होनेपर अर्थात् सर्व कर्मोंका क्षय होनेपर ही असगता कही है र सुखस्वरूपता कही है । ज्ञानीपुरुषोके वे वचन अत्यन्त सत्य हैं, क्योकि सत्सगसे उन वचनोका प्रत्यक्ष, त्यन्त प्रगट अनुभव होता है। निर्विकल्प उपयोगका लक्ष्य स्थिरताका परिचय करनेसे होता है । सुधारस, सत्समागम, सत्शास्त्र, द्वचार और वैराग्य-उपशम ये सब उस स्थिरताके हेतु हैं । ५८६ बवई, चैत्र वदी १२, रवि, १९५१ अधिक विचारका साधन होनेके लिये यह पत्र लिखा है। . • पूर्णज्ञानी श्री ऋषभदेवादि पुरुषोको भी प्रारब्धोदय भोगनेपर क्षय हुआ है, तो हम जैसोको वह रब्धोदय भोगना ही पडे इसमे कुछ सशय नही है। मात्र खेद इतना होता है कि हमे ऐसे प्रारब्धोदयमे ऋषभदेवादि जैसी अविषमता रहे इतना बल नही है; और इस लिये प्रारब्धोदयके होनेपर वारवार -ससे अपरिपक्वकालमे छूटनेको कामना हो आती है, कि यदि इस विषम प्रारब्धोदयमे कुछ भी उपयोगको थातथ्यता न रही तो फिर आत्मस्थिरता प्राप्त करनेके लिये पुन अवसर खोजना होगा, और पश्चात्तापर्वक देह छूटेगी, ऐसी चिन्ता अनेक बार हो आती है। १ भावार्य-जिस तरह स्फटिक रत्नकी निर्मलता होती हैं, उसी तरह जीवका स्वभाव है। जिन वोरने वल कपायके अभावरूप धर्मका निरूपण किया है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy