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________________ १७ वॉ वर्ष की है वे सब वस्तुएँ ससारमे मुख्यतः सुखरूप मानी गयी हैं । ससारका सर्वोत्तम सुखका साधन जो भोग है वह तो रोगका धाम ठहरा । मनुष्य ऊँचे कुलसे सुख मानता है, वहाँ पतनका भय दिखाया। ससारचक्र मे व्यवहारका ठाठ चलानेके लिये दडरूप लक्ष्मी है वह राजा इत्यादिके भयसे भरपूर है। कोई भी कृत्य फरके यश-कीर्तिसे मान प्राप्त करना या मानना, ऐसो ससारके पामर जीवोकी अभिलाषा है, तो उसमे महादीनता और दरिद्रताका भय है । बल-पराक्रमसे भी ऐसी ही उत्कृष्टता प्राप्त करनेकी चाह रही है, तो उसमे शत्रुका भय रहा हुआ है । रूप-काति भोगीके लिये मोहिनीरूप है तो उसे धारण करनेवाली स्त्रियाँ निरतर भययुक्त ही हैं । अनेक प्रकारसे गूंथी हुई शास्त्रजालमे विवादका भय रहा है । किसी भी सासारिक सुखका गुण प्राप्त करनेसे जो आनद माना जाता है, वह खल मनुष्यकी निंदाके कारण भयान्वित है। जिसमे अनत प्रियता रही है वह काया एक समय कालरूपी सिंहके मुखमे पडनेके भयसे भरी है । इस प्रकार ससारके मनोहर परतु चपल सुख-साधन भयसे भरे हुए है। विवेकसे विचार करनेपर जहॉ भय है वहाँ केवल शोक ही है, जहाँ शोक हो वहाँ सुखका अभाव है, और जहाँ सुखका अभाव है वहाँ तिरस्कार करना यथोचित है। योगीद्र भर्तृहरि एक हो ऐसा कह गये हैं ऐसा नही है । कालानुसार सृष्टिके निर्माण समयसे लेकर भर्तृहरिसे उत्तम, भर्तृहरिके समान और भर्तृहरिसे कनिष्ठ ऐसे असख्य तत्त्वज्ञानी हो गये है। ऐसा कोई काल या आर्य देश नही है जिसमे तत्त्वज्ञानियोकी उत्पत्ति बिलकुल न हुई हो । इन तत्त्ववेत्ताओने ससारसुखकी प्रत्येक सामग्रोको शोकरूप बताया है, यह इनके अगाध विवेकका परिणाम है। व्यास, वाल्मीकि, शकर, गौतम, पतजलि, कपिल और युवराज शुद्धोदनने अपने प्रवचनोमे मार्मिक रीतिसे और सामान्य रोतिसे जो उपदेश दिया है, उसका रहस्य नीचेके शब्दोमे कुछ आ जाता है - "अहो लोगो । समाररूपी समुद्र अनत एव अपार है । इसका पार पानेके लिये पुरुषार्थका उपयोग करो | उपयोग करो।" ऐसा उपदेश करनेमे इनका हेतु प्रत्येक प्राणीको शोकसे मुक्त करनेका था। इन सब ज्ञानियोकी अपेक्षा परम मान्य रखने योग्य सर्वज्ञ महावीरके वचन सर्वत्र यही है कि ससार एकात और अनत शोकरूप तथा दुखप्रद है। अहो भव्य लोगो | इसमे मधुरी मोहिनी न लाकर इससे निवृत्त होओ | निवृत्त होओ।। महावीरका एक समयमात्रके लिये भी ससारका उपदेश नही है। इन्होने अपने सभी प्रवचनोमे यही प्रदर्शित किया है तथा स्वाचरणसे वैसा सिद्ध भी कर दिया है । कचनवर्णी काया, यशोदा जैसी रानी, अपार साम्राज्यलक्ष्मी और महाप्रतापो स्वजन परिवारका समूह होनेपर भी उनकी मोहिनीका त्यागकर ज्ञानदर्शनयोगपरायण होकर इन्होने जो अद्भुतता प्रदर्शित की है वह अनुपम है। यहीका यही रहस्य प्रकट करते हुए पवित्र उत्तराध्ययनसूत्रके आठवें अध्ययनकी पहलो गाथामे महावीर कपिल केवलीके समोप तत्त्वाभिलाषीके मुखकमलसे कहलवाते हैं : अधुवे असासयम्मि ससारम्मि दुक्खपउराए । किं नाम हुज्ज कम्मं जेणाहं दुग्गई न गच्छिज्जा ॥ 'अध्रुव एव अशाश्वत ससारमे अनेक प्रकारके दुःख हैं, मै ऐसी कौनसी करनी करूँ कि जिस करनी से दुर्गतिमे न जाऊँ ?" इस गाथामे इस भावसे प्रश्न होनेपर कपिलमुनि फिर आगे उपदेश चलाते हैं : अधुवे असासयम्मि-ये महान तत्त्वज्ञानप्रसादीभूत वचन प्रवृत्तिमुक्त योगीश्वरके सतत वेराग्यवेगके है । अति बुद्धिशालियोको ससार भी उत्तमरूपसे मान्य रखता है, फिर भी वे बुद्धिशाली उसका त्याग करते है, यह तत्त्वज्ञानका स्तुतिपात्र चमत्कार है । वे अति मेधावी अतमे पुरुषार्थकी स्फुरणा कर महायोग साधकर आत्माके तिमिरपटको दूर करते है । ससारको शोकाब्धि कहनेमे तत्त्वज्ञानियोकी भ्राति नही है, परतु ये सभी तत्त्वज्ञानी कही तत्त्वज्ञानचंद्रकी सोलह कलाओसे पूर्ण नहीं होते, इसी कारणसे सर्वज्ञ
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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