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________________ ३६ महावीरके वचन तत्त्वज्ञानके लिये जो महावीरके तुल्य ऋषभदेव जैसे जो जो हितैषीकी पदवी प्राप्त की है । श्रीमद् राजचन्द्र प्रमाण देते हैं वे महत्त्वपूर्ण, सर्वमान्य और सर्वथा मगलमय हैं । सर्वज्ञ तीर्थंकर हुए हैं, उन्होने नि स्पृहतासे उपदेश देकर जगत् ससारमे जो एकात और अनत भरपूर ताप है वह ताप तीन प्रकारका है-आधि, व्याधि और उपाधि। इससे मुक्त होनेके लिये सभी तत्त्वज्ञानी कहते आये है । ससारत्याग, शम, दम, दया, शाति, क्षमा, घृति, अप्रभुत्व, गुरुजनोकी विनय, विवेक, निस्पृहता, ब्रह्मचर्य, सम्यक्त्व और ज्ञान, इन सबका सेवन करना, क्रोध, लोभ, मान, माया, अनुराग, अनबन, विषय, हिंसा, शोक, अज्ञान और मिथ्यात्व, इन सबका त्याग करना । यही सभी दर्शनोका सामान्यत. सार है । नीचेके दो चरणोमे इस सारका समावेश हो जाता है 1 प्रभु भजो नीति सजो, परठो परोपकार. सचमुच | यह उपदेश स्तुतिपात्र है । यह उपदेश देनेमे किसीने किसी प्रकारकी और किसीने किसी प्रकारकी विचक्षणता प्रदर्शित की है । यह सब उद्देशकी दृष्टिसे तो समतुलित - से दिखायी देते है । परंतु सूक्ष्म उपदेशकके तौरपर सिद्धार्थ राजाके पुत्र श्रमण भगवान प्रथम पदवीके धनी हो जाते हैं । निवृत्तिके लिये जिन-जिन विषयोको पहले बताया है उन उन विषयोके सच्चे स्वरूपको समझकर सर्वांशमे मगलमय बोध देनेमे ये राजपुत्र बाजी ले गये हैं । इसके लिये उन्हे अनत धन्यवाद छाजता है । इन सब विषयोका अनुकरण करनेका क्या प्रयोजन अथवा क्या परिणाम है ? अब इसका निर्णय करें | सभी उपदेशक यो कहते आये है कि इसका परिणाम मुक्ति प्राप्त करना, और प्रयोजन दुखकी निवृत्ति है । इसीलिये सब दर्शनोमे सामान्यतः मुक्तिको अनुपम श्रेष्ठ कहा है । द्वितीय अग सूत्रकृताग प्रथम श्रुतस्कधके छठे अध्ययनकी चौबीसवी गाथाके तीसरे चरणमे कहा है कि निव्वाणसेट्ठा जह सव्वधम्मा । सभी धर्मो मुक्तिको श्रेष्ठ कहा है । साराश यह है कि मुक्ति अर्थात् ससारके शोकसे मुक्त होना । परिणाममे ज्ञानदर्शनादि अनुपम वस्तुओको प्राप्त करना । जिसमे परम सुख और परमानदका अखंड निवास है, जन्म-मरणकी विडबनाका अभाव है, शोक एव दुखका क्षय है, ऐसे इस वैज्ञानिक विषयका विवेचन अन्य प्रसगमे करेंगे । यह भी निर्विवाद मान्य रखना चाहिये कि उस अनंत शोक एव अनत दुखकी निवृत्ति इन्ही सांसारिक विषयोसे नही है । रुधिरसे रुधिरका दाग नहीं जाता, परतु जलसे वह दूर हो जाता है, इसी तरह शृगारसे या शृगारमिश्रित धर्मसे ससारकी निवृत्ति नही होती । इसीलिये वैराग्यजलकी आवश्यकता निसराय सिद्ध होती है, और इसीलिये वीतरागके वचनोमे अनुरक्त होना उचित है। निदान इससे विषय - रूप विषका जन्म नही होता । परिणाममे यही मुक्तिका कारण है । इन वीतराग सर्वज्ञके वचनोका विवेकबुद्धिसे श्रवण, मनन और निदिध्यासन करके हे मनुष्य । आत्माको उज्ज्वल कर । प्रथम दर्शन इसमे वैराग्यबोधिनी कुछ भावनाओका उपदेश करेंगे । वैराग्य एव आत्महितैषी विषयोकी सुदृढता होनेके लिये तत्त्वज्ञानी बारह भावनाएँ बताते हैं १. अनित्यभावना - शरीर, वैभव, लक्ष्मी, कुटुम्ब परिवार आदि सर्व विनाशी हैं। जीवका मूल धमं अविनाशी है, ऐसा चिन्तन करना, यह पहली अनित्यभावना |
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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