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________________ श्रीमद राजचन्द्र सकळ जगत ते एठवत्, अथवा स्वप्न समान। ते कहीए ज्ञानीदशा, बाकी वाचाज्ञान ॥१४०॥ जिसने समस्त जगतको जूठनके समान जाना है, अथवा जिसे ज्ञानमे जगत स्वप्नके समान लगता है, वह ज्ञानीकी दशा है, बाकी मात्र वाचाज्ञान अर्थात् कथनमात्र ज्ञान है ॥१४०।। स्थानक पांच विचारीने, छठे वर्ते जेह। पामे स्थानक पांचमुं, एमां नहि संदेह ॥१४॥ पाँचो स्थानकोका विचारकर जो छटे स्थानकमे प्रवृत्ति करता है, अर्थात् उस मोक्षके जो उपाय कहे है, उनमे प्रवृत्ति करता है, वह पाँचवें स्थानक अर्थात् मोक्षपदको पाता है ॥१४१|| देह छता जेनी दशा, वर्ते देहातीत। ते ज्ञानीना चरणमा, हो वंदन अगणित ॥१४२॥ पूर्वप्रारब्धयोगसे जिसे देह रहती है, परतु उस देहसे अतीत अर्थात् देहादिकी कल्पनासे रहित आत्मामय जिसकी दशा रहती है, उस ज्ञानीपुरुपके चरणकमलमे अगणित बार वदन हो ॥१४२|| *साधन सिद्ध दशा अहीं, कही सर्व सक्षेप । षट्दर्शन संक्षेपमा, भाख्यां निविक्षेप ॥ श्रीसद्गुरुचरणार्पणमस्तु । ७१९ नडियाद, आसोज वदी १०, शनि, १९५२ आत्मार्थी, मुनिपथाभ्यासी श्री लल्लुजी तथा श्री देवकरणजी आदिके प्रति, श्री स्तंभतीर्थ । पत्र प्राप्त हुआ था। श्री सद्गुरुदेवके अनुग्रहसे यहाँ समाधि है । इसके साथ एकातमे अवगाहन करनेके लिये 'आत्मसिद्धिशास्त्र' भेजा है। वह अभी श्री लल्लुजीको अवगाहन करना योग्य है। श्री लल्लुजी अथवा श्री देवकरणजीको यदि जिनागमका विचार करनेकी इच्छा हो तो 'आचाराग' 'सूयगडाग', 'दशवकालिक', 'उत्तराध्ययन' और 'प्रश्नव्याकरण' विचारणीय हैं। 'आत्मसिद्धिशास्त्र' का अवगाहन श्री देवकरणजीके लिये भविष्यमे अधिक हितकारी समझकर, अभी मात्र श्री लल्लजीको उसका अवगाहन करनेके लिये लिखा है, फिर भी यदि श्री देवकरणजीकी अभी विशेप आकाक्षा रहती हो तो उन्हे भी, प्रत्यक्ष सत्पुरुष जैसा मुझपर किसीने परमोपकार नही किया है, ऐसा अखड निश्चय आत्मामे लाकर, और इस देहके भविष्य जीवनमे भी उस अखड निश्चयको छोड दूं तो मैंने आत्मार्थका ही त्याग कर दिया और सच्चे उपकारीका कृतघ्न बननेका दोष किया, ऐसा ही समझूगा, और सत्पुरुपका नित्य आज्ञाकारी रहनेमे ही आत्माका कल्याण है, ऐसा, भिन्नभावरहित, लोकसवधी दूसरे प्रकारकी सर्व कल्पना छोडकर, निश्चय लाकर, श्री लल्लुजी मुनिके सान्निध्यमे यह ग्रथ अवगाहन करनेमे अभी भी आपत्ति नही है। बहुत-सी शकाओका समाधान होने योग्य है। ___ सत्पुरुपकी आज्ञामे चलनेका जिसका दृढ निश्चय है और जो उस निश्चयका आराधन करता है, उसे ही ज्ञान सम्यक् परिणामी होता है, यह बात आत्मार्थी जीवको अवश्य ध्यानमे रखना योग्य है । हमने जो ये वचन लिखे हैं, उसके सर्व ज्ञानीपुरुष साक्षी है। भावार्थ-यहाँ सब साधन ओर सिद्ध दशा सक्षेपमें कहे हैं, और सक्षेपमें विशेपरहित पड्दर्शन बताये हैं।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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