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________________ २२४ श्रीमद राजचन्द्र हुआ है, धर्मके व्यावहारिक ज्ञाताओका भी परिचय हुआ है, तथापि इस आत्माका आनंदावरण इससे दूर नही हो सकता, मात्र सत्सगके सिवाय और योगसमाधिके सिवाय, तब क्या करना ? इतना भी बतलानेके लिये कोई सत्पात्र स्थल नही था । भाग्योदयसे आप मिले कि जिन्हे रोम-रोममे यही रुचिकर है। १२७ ववाणिया, प्रथम भादो सुदी ४, १९४६ पत्र मिला। सारे वर्षमे आपके प्रति हुए अपने अपराधकी, नम्रतासे, विनयसे और मन, वचन, कायाके प्रशस्त योगसे पुन पुन. क्षमा चाहता हूँ। सब प्रकारसे मेरे अपराधका विस्मरण कर आत्मश्रेणीमे प्रवर्तन करते रहे, यह विनती है। आजके पत्रमे, मतातरसे दुगुना लाभ होता है ऐसा इस पर्युषण पर्वको सम्यकदृष्टिसे देखते हुए मालूम हुआ, यह बात अच्छी लगी । तथापि कल्याणके लिये यह दृष्टि उपयोगी है । समुदायके कल्याणकी दृष्टि से देखते हुए दो पर्युपण दुखदायक है। प्रत्येक समुदायमे मतातर बढने नही चाहिये, कम होने चाहिये। वि० रायचदके यथायोग्य १२८ ववाणिया, प्रथम भादो सुदी ६, १९४६ धर्मेच्छक भाइयो, प्रथम सवत्सरीसे लेकर आजके दिन तक किसी भी प्रकारसे आपकी अविनय, आशातना, असमाधि मेरे मन, वचन, कायाके किसी भी योगाध्यवसायसे हुई हो उनके लिये पुनः पुन क्षमा चाहता हूँ। अतर्ज्ञानसे स्मरण करते हुए ऐसा कोई काल ज्ञात नही होता अथवा याद नही आता क जिस कालमे, जिस समयमे इस जीवने परिभ्रमण न किया हो, सकल्प-विकल्पको रटन न की हो, और इससे 'समाधि'को न भला हो । निरंतर यह स्मरण रहा करता है, और यह महावैराग्यको देता है। और स्मरण होता है कि यह परिभ्रमण केवल स्वच्छदसे करते हए जीवको उदासीनता क्यो न आई ? दूसरे जीवोके प्रति क्रोध करते हुए, मान करते हुए, माया करते हए, लोभ करते हुए या अन्यथा करते हुए, यह बुरा है, ऐसा यथायोग्य क्यो न जाना ? अर्थात् ऐसा जानना चाहिये था, फिर भी न जाना, यह भी पुन परिभ्रमण करनेसे विरक्त बनाता है। और स्मरण होता है कि जिनके बिना एक पल भी मैं न जी सके, ऐसे कितने ही पदार्थ (स्त्री आदि), उनको अनत वार छोडते, उनका वियोग हुए अनत काल भी हो गया, तथापि उनके बिना जीवित रहा गया, यह कुछ कम आश्चर्यकारक नही है। अर्थात् जिस जिस समय वैसा प्रीतिभाव किया था उस उस समय वह कल्पित था। ऐसा प्रोतिभाव क्यो हुआ ? यह पुन पून वैराग्य देता है। और जिसका मुख किसी कालमे भी न देखें, जिसे किसी कालमे मैं ग्रहण ही न करूँ, उसके घर पुत्रके रूपमे, स्त्रीके रूपमे, दासके रूपमे, दासीके रूपमे, नाना जतुके रूपमे क्यो जन्मा ? अर्थात् ऐसे द्वपसे ऐसे रूपमे जन्म लेना पडा । और वैसा करनेकी तो इच्छा न थी। कहिये, यह स्मरण होने पर इस क्लेशित आत्माके प्रति जुगुप्सा नही आती होगी ? अर्थात् आती है। अधिक क्या कहना ? जो जो पूर्वके भवातरमे भ्रातिरूपसे भ्रमण किया, उसका स्मरण होने पर अव कैसे जीना यह चिंतना हो पडो है। फिर जन्म लेना ही नही और फिर ऐसा करना ही नहीं ऐसा दृढत्व आत्मामे प्रकाशित होता है। परतु कितनी ही निरुपायता है वहाँ क्या करना । जो दृढता है उसे पूर्ण करना, अवश्य पूर्ण करना यही रटन है, परन्तु जो कुछ आड़े आता है उसे एक ओर करना
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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