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________________ ४१० श्रीमद् राजचन्द्र ____ आपके अंबालालको पत्र लिखनेके विषयमे चर्चा हुई, वह यद्यपि योग्य नही हुआ। आपको कुछ प्रायश्चित्त दें तो उसे स्वीकारे परन्तु किसी ज्ञानवार्ताको लिखनेके बदले लिखवानेमे आपको कोई रुकावट नही करनी चाहिये, ऐसा साथमे यथायोग्य निर्मल अन्त करणसे बताना योग्य है कि जो बात मात्र जीवका हित करनेके लिये है। पर्यषणादिमे साधु दूसरेसे लिखवाकर पत्र-व्यवहार करते है, जिसमे आत्महित जैसा थोडा ही होता है। तथापि वह रूढि हो जानेसे लोग उसका निषेध नहीं करते । आप उसी तरह रूढिके अनुसार व्यवहार रखेंगे, तो भी हानि नही है, अर्थात् आपको पत्र दूसरोंसे लिखवानेमे बाधा नही आयेगी और लोगोको आशंका नही होगी। उपमा आदि लिखनेमे लोगोकी विपरीतता रहती हो तो हमारे लिये एक साधारण उपमा लिखें। उपमा नही लिखें तो भी आपत्ति नही है। मात्र चित्तसमाधिके लिये, आपको लिखनेका प्रतिवन्ध नही किया। हमारे लिये उपमाकी कुछ सार्थकता नही है । आत्मस्वरूपसे प्रणाम। ५०२ मुनि श्री लल्लुजी तथा देवकरणजी आदिके प्रति, ___ सहज समागम हो जाये अथवा वे लोग इच्छापूर्वक समागम करनेके लिये आते हो तो समागम करनेमे क्या हानि है ? कदाचित् वे लोग विरोधवृत्तिसे समागम करनेका प्रयत्न करते हो तो भी क्या हानि है ? हमे तो उनके प्रति केवल हितकारोवृत्तिसे, अविरोध दृष्टिसे समागममे भी बरताव करना है। इसमे कौनसा पराभव हे ? मात्र उदीरणा करके समागम करनेका अभी कारण नही है। आप सब मुमुक्षुओंके आचारके विषयमे उन्हे कुछ संशय हो, तो भी विकल्पका अवकाश नही है । वड़वामे सत्पुरुषक समागममे गये आदिका प्रश्न करें तो उसके उत्तरमे इतना ही कहना योग्य है कि "आप, हम सब आत्महितकी कामनासे निकले है, और करनेयोग्य भी यही है। जिन पुरुपके समागममे हम आये है, उनके समागममे कभी आप आकर निश्चय कर देखें कि उनके आत्माकी दशा कैसी है ? और वे हमारे लिये कस उपकारके कर्ता है ? अभी यह बान आप जाने दें तक सहजमे भी जाना हो सके, और यह तो ज्ञान । उपकाररूप प्रसगमे जाना हुआ है, इतना आचा विकल्प करना ठीक नहीं है। अधिक रागद्वेष परि उपदेशसे कुछ भी समझमे आये । प्रा टला यह वैसे पुरुपकी कैसा तथा शास्त्रादिसे विचारकर नही है, क्योकि उन्होने स्वय ऐसा कहा था कि, _ 'आपके मुनिपनका सामान्य व्यवहार ऐसा है कि बाह्य अविरति पुरुषके प्रति वन्दनादिका व्यवहार कर्तव्य नही है। उस व्यवहारकी आप भी रक्षा करे। आप वह व्यवहार करें इसमे आपकी स्वच्छन्दता नही है, इसलिये करने योग्य है। अनेक जीवोके लिये सशयका हेतु नही होगा। हमे कुछ वन्दनादिको अपेक्षा नहीं है।' इस प्रकार जिन्होने सामान्य व्यवहारकी भी रक्षा करवायी थी, उनकी दृष्टि कैसी होनी चाहिये, इसका आप विचार करें। कदाचित अभी यह बात आपकी समझमे न आये तो आगे जाकर समझमें आयेगी, इस विपयमे आप नि सदेह हो जायें। दूसरी बात,- सन्मार्गरूप आचारविचारमे हमारी कुछ शिथिलता हुई हो, तो आप कहे, क्योकि वैसी शिथिलता दूर किये विना तो हितकारी मार्ग प्राप्त नहीं होगा ऐसी हमारी दृष्टि है" इत्यादि प्रसगा१ यह पत्र फटा हुआ मिला है। जहाँ जहाँ अक्षर नही है वहाँ वहाँ (बिन्दु) रखे हैं। वादमें यह पत्र पूरा मिल जानेसे पुन आक ७५० के रूपमें प्रकाशित किया है ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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