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________________ ७४६ भीमद् राजचन्द्र करे तो रोग दूर होता है। रोग जाने बिना अज्ञानी जो उपाय करता है उससे रोग बढ़ता है । पथ्यका पालन करे और दवा करे नहीं, तो रोग कैसे मिटेगा ? अर्थात् नहीं मिटेगा। तो फिर यह तो रोग और, और दवा कुछ और हो! कुछ शास्त्रको तो ज्ञान नहीं कहा जाता। ज्ञान तो तभी कहा जाये कि जब अन्तरकी गाँठ दूर हो । तप, संयम आदिके लिये सत्पुरुषके वचनोंका श्रवण करनेका कहा है। - . ज्ञानी भगवानने कहा है कि साधुओंको अचित् और नीरस आहार लेना चाहिये । इस कथनको तो कितने ही साधु भूल गये हैं। दूध आदि सचित् भारी-भारी विगय पदार्थ लेकर ज्ञानीकी आज्ञाको ठुकराकर चलना यह कल्याणका मार्ग नहीं है। लोग कहते हैं कि ये साधु है; परन्तु जो आत्मदशा साधता है वहीं साधु है। ...... - नरसिंह मेहता कहते हैं कि अनादिकालसे यों ही चलते चलते काल बीत गया परन्तु अन्त नहीं आया। यह मार्ग नहीं है; क्योंकि अनादिकालसे चलते चलते भी मार्ग हाथ लगा नहीं। यदि मार्ग यही होता तो ऐसा न होता कि अभी तक कुछ भी हाथमें नहीं आया । इसलिये मार्ग और ही होना चाहिये। तष्णा कैसे कम हो ? यदि लौकिक भावमें बड़प्पन छोड़ दे तो। 'घर-कुटुम्ब आदिको मुझे क्या करना है ? लौकिकमें चाहे जैसा हो, परन्तु मुझे तो मान-बड़ाई छोड़कर चाहे जिस प्रकारसे तृष्णाको कम करना है', इस तरह विचार करे तो तृष्णा कम होती है, मंद हो जाती है। तपका अभिमान कैसे कम हो ? त्याग करनेका उपयोग रखनेसे । 'मुझे यह अभिमान क्यों होता है ?' यों रोज़ विचार करते करते अभिमान मंद पड़ेगा। ........ ..... - ज्ञानी कहते हैं उस कुंजीरूपी ज्ञानका यदि जीव विचार करे तो अज्ञानरूपी ताला खुल जाता है; कितने ही ताले खुल जाते हैं। कुंजी हो तो ताला खुलता है; नहीं तो पत्थर मारनेसे तो ताला टूट जाता है। ....... 'कल्याण क्या होगा ?' ऐसा जीवको झूठा भ्रम है। वह कुछ हाथी-घोड़ा नहीं है। जीवको ऐसी भ्रांतिके कारण कल्याणकी कुंजियाँ समझमें नहीं आतीं। समझमें आ जायें तो तो सुगम हैं। जीवकी . भ्रांतियोंको दूर करनेके लिये जगतका वर्णन किया है। यदि जीव सदाके अंध मार्गसे थक जाये तो मार्गमें आता.है। - ज्ञानी परमार्थ, सम्यक्त्वको ही बताते हैं। 'कषायका कम होना वही कल्याण हैं, जीवके राग, द्वेष और अज्ञानका दूर होना कल्याण कहा जाता है।' तब लोग कहते हैं, कि 'ऐसा तो हमारे गुरु भी कहते हैं, तो फिर आप भिन्न क्या बताते हैं ? ऐसी उलटी-सीधी कल्पनाएँ करके जीव अपने दोषोंको दूर करना नहीं चाहता। आत्मा अज्ञानरूपी पत्थरसे दब गया है। ज्ञानो ही आत्माको ऊँचा उठायेंगे । आत्मा दब गया है 'इसलिये कल्याण सूझता नहीं है । ज्ञानी सद्विचाररूपी सरल कुंजियां बताते हैं, वे कुंजियाँ हज़ारों तालोंको लगती हैं। जीवका आंतरिक अजीर्ण दूर हो तव अमृत अच्छा लगता है, उसी तरह भ्रांतिरूप अजीर्ण दूर होनेपर कल्याण होता है, परन्तु जीवको अज्ञानी गुरुओंने भड़का रखा है, इसलिये भ्रांतिरूप अजीर्ण कैसे दूर हो ? अज्ञानी गुरु ज्ञानके बदले तप बताते हैं, तपमें ज्ञान बताते हैं, यों उलटा-उलटा बताते हैं इसलिये जीवके लिये तरना बहुत कठिन है । अहंकार आदिसे रहित होकर तप आदि करें। कदाग्रह छोड़कर जीव विचार करे तो मार्ग तो अलग है। समकित सुलभ है, प्रत्यक्ष है, सरल है । जीव गाँव छोड़कर आगे निकल गया है वह पीछे लौटे तो गाँव आता है । सत्पुरुषके वचनोंका आस्थासहित
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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