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________________ २८ वा वर्ष - 'अल्पकालमे उपाधिरहित होनेकी इच्छा करनेवालेके लिये आत्मपरिणतिको किस विचारमे योग्य है कि जिससे वह उपाधिरहित हो सके ?' यह प्रश्न हमने लिखा था। उसके उत्तरमे आपने कि 'जब तक रागबन्धन है तब तक उपाधिरहित नही हुआ जाता, और वह बधन आत्मपरिणति हो जाये, वैसी परिणति रहे तो अल्पकालमे उपाधिरहित हुआ जाता है, इस प्रकार जो उत्तर लिए यथार्थ है । यहाँ प्रश्नमे विशेषता इतनी है कि 'बलात् उपाधियोग प्राप्त होता हो, उसके प्रति राग परिणति कम हो, उपाधि करनेके लिये चित्तमे वारवार खेद रहता हो, और उस उपाधिका त्याग क परिणाम रहा करता हो, वैसा होनेपर भी उदयबलसे उपाधि प्रसग रहता हो तो वह किस उपायसे किया जा सके ?' इस प्रश्नके विषयमे जो ध्यानमे आये सो लिखियेगा। , - 'भावार्थप्रकाश' ग्रन्थ हमने पढा है, उसमे सम्प्रदायके विवादका कुछ समाधान हो सके रचना की है, परन्तु तारतम्यसे वस्तुतः वह ज्ञानवानकी रचना नही है, ऐसा मुझे लगता है। - 'श्री डगरने "अखे पुरुष एक वरख हे', यह सवैया लिखाया है, उसे पढा हे । श्री डुगर सवैयोका विशेष अनुभव है। तथापि ऐसे सवैयोमे भी प्राय छाया जैसा उपदेश देखनेमे आता है उससे अमुक निर्णय किया जा सकता है, और कभो निर्णय किया जा सके तो वह पूर्वापर अविरोध है, ऐसा प्राय ध्यानमे नही आता । जीवके पुरुषार्थधर्मको कितने ही प्रकारसे ऐसी वाणी बलवान है, इतना उस वाणीका उपकार कितने ही जीवोकी प्रति होना सम्भव है। श्री नवलचदकी अभी दो चिट्टियाँ आयी थी, कुछ धर्म-प्रकारको जाननेकी अभी उन्हे हुई है, तथापि उसे अभ्यासवत् और द्रव्याकार जैसी अभी समझना योग्य है। यदि किसो कारणयोगसे इस प्रकारके प्रति उनका ध्यान बढेगा तो भावपरिणामसे धर्मविचार-हो सके ऐसा क्षयोपशम है। ___ आपके आजके पत्रमे श्री डुगरने जो साखी लिखवायी है, "व्यवहारनी झाळ पादडे परजळी' यह पद जिसमे पहला है वह यथार्थ है। उपाधिसे उदासीन चित्तको धीरताका हेतु है साखी है। आपका और श्री डुगरका यहाँ आनेका विशेष चित्त है ऐसा लिखा उसे विशेषतः जाना डुगरका चित्त ऐसे प्रकारमे कई बार शिथिल होता है, वैसा इस प्रसगमे करनेका कारण दिखायं देता | श्री डुगरको द्रव्य (बाहर) से मानदशा ऐसे प्रसगमे कुछ आड़े आती होनी चाहिये, ऐसा हमे है, परन्तु वह ऐसे विचारवानको रहे यह योग्य नही है, फिर दूसरे साधारण जीवोके विषयमे वैसे : निवृत्ति सत्सगसे भी कैसे होगी? , हमारे चित्तमे एक इतना रहता है कि यह क्षेत्र सामान्यत अनार्य चित्त कर डाले ऐसा है क्षेत्रमे सत्समागमका यथास्थित लाभ लेना बहुत कठिन पडता है, क्योकि आसपासके समागम व्यवहार सब प्राय विपरीत ठहरे, और इस कारणसे प्राय कोई मुमुक्षुजीव यहाँ चाहकर समागम आनेकी इच्छा करता हो उसे भी उत्तरमे 'ना' लिखने जेसा होता है, क्योकि उसके श्रेयको बाधा: देना योग्य है । आपके और श्री डुंगरके आनेके सम्बन्धमे इतना. सब विचार तो चित्तमे नही होता. कुछ सहज होता है । यह सहज विचार जो होता है वह ऐसे कारणसे नहीं होता कि यहाँका उर उपाधियोग देखकर हमारे प्रति आपके चित्तमे कुछ विक्षेप हो, परन्तु ऐसा रहता है कि आपके तर डगर जैसेके सत्समागमका लाभ क्षेत्रादिकी विपरीततासे यथायोग्य न लिया जाये, इससे चित्तम १. अक्षय पुरुष एक वृक्ष है। २. व्यवहारकी ज्वाला पत्ते-पत्तेपर प्रज्वलित हुई।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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