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________________ ४७२ श्रीमद् राजचन्द्र जाता है। यद्यपि आपके आनेके प्रसगमे उपाधि बहुत कम की जा सकेगी, तथापि आसपासके साधन सत्समागमको और निवृत्तिको वर्धमान करनेवाले नही है, इससे चित्तमे सहज खेद होता है । इतना लिखनेसे चित्तमे आया हुआ एक विचार लिखा है ऐसा समझना। परन्तु आपको अथवा श्री डुगरको रोकने सवधी किसी भी आशयसे नही लिखा है, परन्तु इतना आशय चित्तमे है कि यदि श्री डुगरका चित्त आनेके प्रति कुछ शिथिल दिखायी दे तो आप उनपर विशेष दबाव न डालें, तो भी आपत्ति नही है, क्योकि श्री डुगर आदिके समागमकी विशेष इच्छा रहती है, और यहाँसे कुछ समयके लिये निवृत्त हुआ जा सके तो वैसा करनेकी इच्छा है, तो श्री डुगरका समागम किसी दूसरे निवृत्तिक्षेत्रमे होगा ऐसा लगता है। आपके लिये भी इसी प्रकारका विचार रहता है, तथापि उसमे भेद इतना होता है कि आपके आनेसे यहॉकी कई उपाधियाँ अल्प कैसे की जा सके ? उसे प्रत्यक्ष दिखाकर, तत्सम्बन्धी विचार लेनेका हो सकता है। जितने अशमे श्री सोभागके प्रति भक्ति है, उतने ही अंशमे श्री डुगरके प्रति भक्ति है, इसलिये उन्हे इस उपाधिसबधी विचार बतानेसे भी हम पर तो उपकार है । तथापि श्री डुगरके चित्तमे कुछ भी विक्षेप होता हो और यहाँ अनिच्छासे आना पड़ता हो तो सत्समागम यथायोग्य नही हो सकता। वैसा न होता हो तो श्री डुगर और श्री सोभागको यहाँ आनेमे कोई प्रतिबन्ध नही है । यही विनती।। आ० स्व० प्रणाम। ५९९ - बबई, वैशाख वदी १४, गुरु, १९५१ शरण (आश्रय) और निश्चय कर्तव्य है। अधीरतासे खेद कर्तव्य नही है। चित्तको देहादिके भयका विक्षेप भी करना योग्य नही है । अस्थिर परिणामका उपशम करना योग्य है। आ० स्व०प्र० ६०० बबई, जेठ सुदी २, रवि, १९५१ अपारवत् संसारसमुद्रसे तारनेवाले सद्धर्मका निष्कारण करुणासे जिसने उपदेश किया है, उस ज्ञानीपुरुषके उपकारको नमस्कार हो ! नमस्कार हो! . परम स्नेही श्री सोभागके प्रति, श्री सायला । . यथायोग्यपूर्वक विनती कि-आपका लिखा एक पत्र कल मिला है । आपके तथा श्री डुगरके यहाँ आनेके विचार सम्बन्धी यहाँसे एक पत्र हमने लिखा था उसका अर्थ कुछ और समझा गया मालूम होता है । उस पत्रमे इस प्रसगमे जो कुछ लिखा है उसका संक्षेपमे भावार्थ इस प्रकार है मुझे प्राय निवृत्ति मिल सकती है, परन्तु यह क्षेत्र स्वभावसे प्रवृत्तिविशेषवाला है, जिससे निवृत्तिक्षेत्रमे सत्समागमसे जैसा आत्मपरिणामका उत्कर्ष हो, वैसा प्राय प्रवृत्तिविशेष क्षेत्रमे होना कठिन पड़ता है। बाकी आप अथवा श्री डुगर अथवा दोनो आये उसमे हमे कोई आपत्ति नही है। प्रवृत्ति बहुत कम की जा सकती है; परन्तु श्री डुगरका चित्त आनेमे कुछ विशेष शिथिल हो तो आग्रहसे न लायें तो भी आपत्ति नहीं है, क्योकि उस तरफ थोड़े समयमे समागम होनेका कदाचित् योग हो सकेगा। इस प्रकार लिखनेका आशय था। आप अकेले ही आयें और श्री डुगर न आयें अथवा हमे अभी निवृत्ति नहीं है, ऐसा लिखनेका आशय नही था। मात्र निवृत्तिक्षेत्रमे किसी तरह समागम होनेके विषयमे विशेषता लिखी है। कभी विचारवानको तो प्रवृत्तिक्षेत्रमे सत्समागम विशेष लाभकारक हो पड़ता है। ज्ञानीपुरुषकी भीड़मे निर्मलदशा देखना बनता है । इत्यादि निमित्तसे विशेष लाभकारक भी होता है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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