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________________ २७ वॉ वर्ष लौकिकभावसे करके आत्महितकी इच्छा करे, यह न होने जैसा ही कार्य है, क्योकि लौकिकभावके कारण जहाँ आत्माको निवृत्ति नही होती, वहाँ अन्य प्रकारसे हितविचारणा होना सम्भव नही है। यदि एककी निवृत्ति हो तो दूसरेका परिणाम होना सम्भव है।। अहितहेतु ऐसे ससारसम्बन्धी प्रसा, लौकिकभाव, लोकचेष्टा इन सबकी सम्भाल यथासम्भव छोड़ करके, उसे कम करके आत्महितको अवकाश देना योग्य है। आत्महितके लिये सत्सग जैसा बलवान अन्य कोई निमित्त प्रतीत नही होता, फिर भी वह सत्सग भी जो जीव लौकिकभावसे अवकाश नही लेता, उसके लिये प्राय. निष्फल होता है, और सत्सग कुछ सफल हुआ हो, तो भी यदि लोकावेश विशेष-विशेष रहता हो तो उस फलके निर्मूल हो जानेमे देर नहीं लगती, और स्त्री, पुत्र, आरम्भ तथा परिग्रहके प्रसगमेसे यदि निजबुद्धि छोडनेका प्रयास न किया जाये तो सत्सगके सफल होनेका सम्भव कैसे हो? जिस प्रसगमे महा ज्ञानीपुरुष संभल संभलकर चलते है, उसमे इस जीवको तो अत्यन्त अत्यन्त सावधानतासे, सकोचपूर्वक चलना चाहिये, यह बात भूलने जैसी ही नही है, ऐसा निश्चय करके प्रसग-प्रसगमे, कार्य-कार्यमे और परिणाम-परिणाममें उसका ध्यान रखकर उससे छूटा जाये, वैसे ही करते रहना, यह हमने श्री वर्धमानस्वामीकी छद्मस्थ मुनिचर्याके दृष्टातसे कहा था। . . .' ५२९ । बबई, आसोज वदी ३, बुध, १९५० 'भगवान भगवानका सँभालेगा, परन्तु जब जीव अपना अह छोडेगा तब', ऐसा जो भद्रजनोका वचन है, वह भी विचार करनेसे हितकारो है । आप कुछ ज्ञानकथा लिखियेगा। ५३० , बबई, आसोज वदी ६, शनि, १९५० सत्पुरुषको नमस्कार आत्मार्थी, गुणग्राही, सत्सगयोग्य भाई श्री 'मोहनलालके प्रति, डरबन ।।। श्री ववईसे लिखित जीवन्मुक्तदशाके इच्छुक रायचदका आत्मस्मृतिपूर्वक यथायोग्य प्राप्त हो । यहाँ कुशलता है। आपका लिखा हुआ एक पत्र मुझे मिला है। कई कारणोंसे उसका उत्त लिखनेमे ढील हुई थी । वादमे, आप इस तरफ तुरन्त आनेवाले हैं, ऐसा जाननेमे आनेसे पत्र नही लिा था, परन्तु अभी ऐमा जाननेमे आया है कि स्थानीय कारणसे अभी वहां लगभग एक वर्ष तक ठहरने है, जिससे मैने यह पत्र लिखा है। आपके लिखे हुए पत्रमे जो आत्मा आदिके विषयमे प्रश्न हैं और प्रश्नोके उत्तर जाननेकी आपके चित्तमे विशेष आतुरता है, उन दोनोके प्रति मेरा सहज सहज अनुम है । परन्तु जिस समय आपका वह पत्र मुझे मिला उस समय उसका उत्तर लिखा जा सके ऐसे चित्तको स्थिति नही थी, और प्रायः वैसा होनेका कारण भी यह था कि उस प्रसगमे बाह्योपाधि स वैराग्य विशेष परिणामको प्राप्त हुआ था, और वैसा होनेसे उस पत्रका उत्तर लिखने जैसे का प्रवृत्ति हो सकना सम्भव न था। थोडा समय जाने देकर, कुछ वैसे वैराग्यमेसे भी अवकाश लेकर पत्रका उत्तर लिखेंगा, ऐसा सोचा था, परन्तु बादमे वैसा होना भी अशक्य हो गया। आपके पत्र भो मैंने लिखो न थी और इस प्रकार उत्तर लिख भेजनेमे ढोल हुई, इससे मेरे मनमे भी खेद और जिसका अमुक भाव तो अभी तक रहा करता है । जिस प्रसगमे विशेष करके खेद हुआ, र १. महात्मा गाघोजीने उरवन-अफ्रीकासे जो प्रश्न पूछे थे उनके उत्तर यहाँ दिये है। की पढ़ हआ था स प्रसंगमें
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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