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________________ १७ वें वर्षसे पहले बॅध कर पराधीन होकर, त्रसस्थावरमे निरन्तर घोर दुखको भोगता हुआ वारवार जन्ममरण करता है। जो-जो कर्मका उदय आकर रस देता है, उस उदयमे तन्मय होकर अज्ञानी जीव अपने स्वरूपको छोडकर नया-नया कर्मबंध करता है। कर्मबधके अधीन हुए प्राणीके लिये ऐसी कोई दुखकी जाति बाकी नही रही कि जिसे उसने न भोगा हो। सभी दु खोको अनतानत वार भोगकर अनन्तानत काल व्यतीत हो गया है । इस प्रकार इस ससारमे इस जीवके अनन्त परिवर्तन हुए है। ससारमे ऐसा कोई पुद्गल नही रहा कि जिसे इस जीवने शरीररूपसे, आहाररूपसे ग्रहण न किया हो । अनन्त जातिके अनन्त पुद्गलोंके शरीर धारणकर आहाररूप (भोजनपानरूप) किया है। तीन सौ तैंतालोस धनरज्जुप्रमाण लोकमे ऐसा कोई एक भी प्रदेश नही है कि जहाँ ससारी जीवने अनतानत जन्म-मरण नही किये हो। उत्सर्पिणी अवसर्पिणी कालका ऐसा एक भी समय बाकी नही रहा कि जिस समयमे यह जीव अनतवार जन्मा नही हो और मरा नही हो । नरक, तिर्यच, मनुष्य और देव. इन चारो पर्यायोमे इस जीवने जघन्य आयुसे लेकर उत्कृष्ट आयु पर्यंत समस्त आयुओके प्रमाण धारण करके अनतवार जन्म ग्रहण किया है। केवल अनुदिश, अनुत्तर विमानमे वह उत्पन्न नही हुआ, क्योकि इन चौदह विमानोमे सम्यग्दृष्टिके विना अन्यका जन्म नही होता। सम्यग्दृष्टिको ससार-भ्रमण नही है। कर्मकी स्थितिबधके स्थान और स्थितिबधके कारण असख्यात, लोकप्रमाण कपायाध्यवसायस्थान, उसके कारण असंख्यात लोकप्रमाण अनुभाग बधाध्यवसायस्थान तथा जगतश्रेणीके संख्यातवें भाग जिनने योगस्थानोमेसे ऐसा कोई भाव बाकी नही रहा कि जो ससारी जीवको न हुआ हो। केवल सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रके योगभाव नही हुए। अन्य समस्त भाव ससारमे अनतानत बार हुए हैं। जिनेद्रके वचनके अवलम्बनसे रहित पुरुषको मिथ्या ज्ञानके प्रभावसे अनादिसे विपरीत बुद्धि हो रही है इसलिये सम्यग्मार्गको ग्रहण न करके ससाररूप वनमे नष्ट होकर जीव निगोदमे जा गिरता है । कैसी है निगोद ? अनतानत काल बीत जाने पर भी जिसमेसे निकलना बहुत मुश्किल है। कदाचित् पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय, प्रत्येक वनस्पतिकाय और साधारण वनस्पतिकायमे लगभग समस्त ज्ञानका नाश होनेसे जडरूप होकर, एक स्पर्गेन्द्रिय द्वारा कर्मोदयके अधीन होकर आत्मशक्तिरहित, जिह्वा, नासिका, नेत्र, कर्णादि इद्रियसे रहित होकर दु खमे दीर्घकाल व्यतीत करता है । और द्वीद्रिय, त्रीद्रिय, चतुरिंद्रियरूप विकलत्रय जीव, आत्मज्ञानरहित केवल रसना आदि इद्रियोके विषयोकी अति तृष्णाके मारे उछल-उछलकर विषयोके लिये गिर-गिर कर मरते हैं । असख्यात काल विकलत्रयमे रहकर पुन एकेंद्रियमे फिर-फिर कर वारंवार कुएँके रहँटकी घटीकी भांति नयी-नयी देह धारण करते-करते चारो गतियोमे निरतर जन्म, मरण, भूख, प्यास, रोग, वियोग और सताप भोगकर अनतकाल तक परिभ्रमण करते हैं । इसका नाम ससार है। जैसे उबलते हुए अदहनमे चावल सब तरफ फिरते हुए भी सीझ जाते हैं, वैसे ससारी जीव कमसे तप्तायमान होकर परिभ्रमण करते हैं । आकाशमे उडते हुए पक्षीको दूसरा पक्षी मारता है, जलमे विचरते हुए मत्स्यादिको दूसरे मत्स्यादि मारते हैं, स्थलमे विचरते हुए मनुष्य, पशु आदिको स्थलचारी सिंह, वाघ, सर्प आदि दुष्ट तिर्यंच तथा भील, म्लेच्छ चोर, लुटेरे तथा महान निर्दय मनुष्य मारते है। इस ससारमे सभी स्थानोमे निरतर भयभीत होकर निरतर दुखमय परिभ्रमण करते है। जैसे शिकारीके उपद्रवसे भयभीत हुए जीव मुंह फाडकर बैठे हुए अजगरके मुंहमे विल समझकर प्रवेश करते है, वैसे अज्ञानी जीव भूख, प्यास, काम, कोप इत्यादि तथा इद्रियोंके विषयोकी तृष्णाके आतापसे सतप्त होकर, विपयादिरूप अजगरके मुंहमे प्रवेश करते है। विषयकषायमे प्रवेश करना ससाररूप अजगरके मुंहमे प्रवेश करना है। इसमे प्रवेश करके अपने ज्ञान, दर्शन, सुख, सत्ता आदि भावप्राणोका नाश करके, निगोदमे अचेतन तुल्य होकर, अनतवार जन्म-मरण करते हुए अनतानत काल व्यतीत करते है । वहाँ आत्मा अभाव तुल्य है, जब ज्ञानादिका अभाव हुआ तब नाश भी हुआ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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