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________________ उपदेश छाया ७२३ है उतना दूसरी,बार करते हुए नही रहता। इसलिये पहलेसे ही अकार्य करते हुए रुक जायें, दृढ निश्चय करके अकार्य न करे। . सत्पुरुष उपकारके-लिये जो उपदेश करते है, उसे सुने और विचारे तो जीवके दोष अवश्य कम होते है। पारसमणिका सग हुआ, और लोहेका सुवर्ण न हुआ तो, या तो पारसमणि नही और या तो असली लोहा नही । उसी तरह जिसके उपदेशसे आत्मा सुवर्णमय न हो वह उपदेष्टा, या तो सत्पुरुष नही, और या तो उपदेश,सुननेवाला योग्य जीव नही। योग्य जीव और सच्चे सत्पुरुष हो तो गुण प्रकट हुए बिना नही रहते। लौकिक आलबन करना ही नहीं। जीव स्वय जागृत हो तो सभी विपरीत कारण दूर हो जाते हैं। जिस तरह कोई पुरुष घरमे निद्रावश है, उसके घरमे कुत्ते, विल्ले आदि घुस जानेसे नुकसान करते है, और फिर वह पुरुष जागनेके बाद नुकसान करनेवाले कुत्ते आदि प्राणियोका दोप निकालता है - अपना दोष नही निकालता कि मैं सो गया तो ऐसा हुआ, उसी तरह जीव अपने दोप नही देखता जागृत रहता हो तो सभी विपरीत कारण दूर हो जाते है, इसलिये स्वय जागृत रहे। ,,, जीव यो कहता है कि तृष्णा, अहंकार, लोभ आदि मेरे दोष दूर नहीं होते, अर्थात् जीव: अपना दोष नही निकालता, और दोषोका ही दोष निकालता है। जैसे सूर्यका ताप बहुत पडता है, इससे जीव बाहर नही निकल सकता, इसलिये सूर्यका दोष निकालता है, परन्तु छतरी और जूते सूर्यके तापसे जो लिये बताये है, उनका उपयोग नही करता। ज्ञानीपुरुषोने लोकिकभावको छोड़कर जिन विचारोसे अपने दोष कम किये, नष्ट किये, वे विचार और वे उपाय ज्ञानी उपकारके लिये बताते है । उन्हे सुनकर वे आत्मामे परिणमित हो ऐसा पुरुषार्थ करे। .. - . किस तरह दोप कम हो ? जीव लौकिक भाव, क्रिया किया करता है, और दोष क्यो कम नहीं होते यो कहा करता है, . , , , -- जो जीव योग्य नही होता उसे सत्पुरुष उपदेश नही देते। . . सत्पुरुपकी, अपेक्षा मुमुक्षुका त्याग-वैराग्य बढ जाना चाहिये । मुमुक्षुओको जागत-जागत होकर वैराग्य बढाना चाहिये । सत्पुरुषका एक भी वचन सुनकर अपनेमे दोषोके अस्तित्वका बहुत ही खेद करेगा और दोष कम करेगा तभी गुण प्रकट होगे । सत्सग समागमको आवश्यकता है। बाकी सत्पुरुष तो जैसे एक बटोही दुसरे बटोहीको रास्ता बताकर चला जाता है, उसी तरह रास्ता बताकर चले जाते हैं। गरुपद धारण करनेके लिये अथवा शिष्य बनानेके लिये सत्पुरुपकी इच्छा नही है। सत्पुरुषके बिना एक भी आग्रह, कदाग्रह दूर नहीं होता। जिसका-दुराग्रह दूर हुआ. उसे-आत्माका भान होता है । सत्पुरुषके प्रतापसे ही दोष कम होते है । भ्राति दूर हो जाये तो तुरत सम्यक्त्व होता है। ... बाहबलोजीको जैसे केवलज्ञान पासमे-अतरमे-या, कुछ बाहर न था, वैसे ही सम्यक्त्व अपने पास ही है। । । शिष्य ऐसा हो कि सिर काट कर दे दे, तव ज्ञानी सम्यक्त्व प्राप्त कराते है । ज्ञानोपुरुपको नमस्कार आदि करना शिष्यके अहकारको दूर करनेके लिये है । परन्तु मनमे उथल पुथल हुआ करे तो किनारा कब आयेगा? । जीव अहकार रखता है, असत् वचन बोलता है, भ्राति रखता है, उसका उसे तनिक भी भान नही है। यह भान हुए विना निवेडा आनेवाला नहीं है। , शूरवीर वचनोके समान दुसरा एक भी वचन नही है । जीवको सत्पुरुषका एक शब्द भी समझम नही आया । वड़प्पन बाधा डालता हो तो उसे छोड़ दे। इंडियाने मुंपत्ती और तपाने मूर्ति आदिका
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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