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श्रीमद राजचन्द्र
१२५. यदि अमुक नयसे कहा गया तो इससे यह सिद्ध नहीं होता कि दूसरे नयसे प्रतीत होनेवाले धर्मका अस्तित्व नहीं है । '
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१२६. केवलज्ञान अर्थात् मात्र ज्ञान ही, उसके सिवाय दूसरा कुछ भी नहीं, और जब ऐसा है तब उसमें दूसरा कुछ नहीं समाता । जब सर्वथा सर्व प्रकारसे रागद्वेषका क्षय हो जाये तभी केवलज्ञान कहा जाता है। यदि किसी अंशमें रागद्वेष हों तो वह चारित्रमोहनीयके कारणसे हैं । जहाँ जितने अंशमें रागद्वेष हैं, वहाँ उतने ही अंशमें अज्ञान है, जिससे वे केवलज्ञानमें समा नहीं सकते, अर्थात् केवलज्ञानमें वे नहीं होते । वे एक दूसरेके प्रतिपक्षी हैं । जहाँ केवलज्ञान है वहाँ रागद्वेष नहीं है अथवा जहाँ रागद्वेष हैं वहाँ केवलज्ञान नहीं है |
१२७. गुण और गुणी एक ही हैं; परन्तु किसी कारण से वे भिन्न भी हैं । सामान्यतः तो गुणोंका समुदाय 'गुणी' है, अर्थात् गुण और गुणी एक ही है, भिन्न-भिन्न वस्तु नहीं हैं । गुणीसे गुण अलग नहीं हो सकता। जैसे मिस्रीका टुकड़ा गुणी है और मिठास गुण है । गुणी मिस्री और गुण मिठास वे दोनों साथ ही रहते हैं, मिठास कुछ भिन्न नहीं होतो; तथापि गुण और गुणी किसी अंशसे भेदवाले हैं ।
१२८. केवलज्ञानीका आत्मा भी देहव्यापक क्षेत्रावगाहित है; फिर भी लोकालोकके समस्त पदार्थ, जो देहसे दूर है, उन्हें भी एकदम जान सकता है ।
१२९. स्व-परको अलग करनेवाला जो ज्ञान है वही ज्ञान है । इस ज्ञानको प्रयोजनभूत कहा गया है । इसके सिवाय जो ज्ञान है वह अज्ञान है। शुद्ध आत्मदशारूप शांत जिन है । उसकी प्रतीति जिनप्रतिबिंब सूचित करता है । उस शांत दशाको पाने के लिये जो परिणति, अथवा अनुकरण अथवा मार्ग है उसका नाम 'जैन' – जिस मार्गपर चलनेसे जैनत्व प्राप्त होता है ।
१३०. यह मार्ग आत्मगुणरोधक नहीं है परन्तु बोधक है, अर्थात् आत्मगुणको प्रगट करता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है । यह बात परोक्ष नहीं परन्तु प्रत्यक्ष है । प्रतीति करनेके अभिलाषीको पुरुषार्थं करने से सुप्रतीत होकर प्रत्यक्ष अनुभवगम्य हो जाता है ।
. १३१. सूत्र और सिद्धांत ये दोनों भिन्न हैं । रक्षण करनेके लिये सिद्धांत सूत्ररूपी पेटीमें रखे गये हैं । देश-कालके अनुसार सूत्र रचे अर्थात् गूंथे जाते हैं; और उनमें सिद्धांत गूंथे जाते हैं । वे सिद्धांत चाहे जिस कालमें, चाहे जिस क्षेत्रमें बदलते नहीं हैं, अथवा खंडित नहीं होते; और यदि वे खंडित हो जायें तो वे सिद्धांत नहीं हैं ।
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१३२. सिद्धांत गणितकी तरह प्रत्यक्ष हैं, इसलिये उनमें किसी तरहकी भूल या अधूरापन नहीं रहता । अक्षर विकल अर्थात् मात्रा, शिरोरेखा आदिके बिना हों तो उन्हें सुधारकर मनुष्य पढ़ लेते हैं; परन्तु यदि अंकों की भूल हो तो हिसाब झूठा ठहरता है, इसलिये अंक विकल नहीं होते। इस दृष्टांतको उपदेशमार्ग और सिद्धान्तमार्गपर घटायें ।
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१३३. सिद्धांत चाहे जिस देशमें, चाहे जिस भाषामें और चाहे जिस कालमें लिखे गये हों तो भी वे असिद्धांत नहीं हो जाते । उदाहरणरूपमें दो और दो चार होते हैं । फिर चाहे वे गुजराती, संस्कृत, प्राकृत, चीनी, अरबी, फारसी या अंगरेजी भाषामें क्यों न लिखे गये हों । उन अंकोंको चाहे जिस संज्ञासे पहचाना जाये तो भी दो और दोका योगफल चार ही होता है यह बात प्रत्यक्ष है । जैसे नौ नवाँ इक्यासी उसे चाहे जिस देशमें, चाहे जिस भाषामें, और दिन-दहाड़े या काली रात में गिना जाये तो भी अस्सी या वियासी नहीं होते, परन्तु इक्यासी ही होते हैं । यही बात सिद्धांतकी भी है ।