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________________ ३३ वॉ वर्ष ६५७ भयंकर नरकगतिमे, तिर्यंचगतिमे और बुरी देव तथा मनुष्यगतिमे हे जीव | तू तीव्र दुःखको प्राप्त हुआ, इसलिये अब तो जिन-भावना (जिन भगवान जिस परमशातरसमे परिणमन कर स्वरूपस्थ हुए, उस परमशातस्वरूप चिन्तन) का भावन-चिंतन कर (कि जिससे वैसे अनत दु.खोका आत्यतिक वियोग होकर परम अव्याबाध सुखसपत्ति सप्राप्त हो)। ॐ शातिः शातिः शातिः ९१४ धर्मपुर, चैत्र वदी ५, गुरु, १९५६ ___ जहाँ सकुचित जनवृत्तिका सभव न हो और जहाँ निवृत्तिके योग्य विशेष कारण हो, ऐसे क्षेत्रमे महान पुरुषोको विहार, चातुर्मासरूप स्थिति कर्त्तव्य है। शाति. ९१५ . .धर्मपुर, चैत्र वदी ६, शुक्र, १९५६ मुमुक्षुजनो, ___ आपका लिखा पत्र बबईमे मिला था। यहां बीस दिनसे 'स्थिति है। पत्रमे आपने दो' प्रश्नोका समाधान जाननेकी अभिलाषा प्रदर्शित को थी। उन दो प्रश्नोका समाधान यहाँ सक्षेपमे लिखा है। (१) उपशमश्रेणिमे मुख्यत उपशमसम्यक्त्वका सभव है।' ' (२) चार घनघाती कर्मोंका क्षय होनेसे अन्तराय कर्मकी प्रकृतिका भी क्षय होता है और इससे दानातराय, लाभातराय, वोयांतराय, भोगातराय और उपभोगातराय इन पांच प्रकारके अतरायोका क्षय होकर अनत दानलब्धि, अनत लाभलब्धि, अनत वीर्यलब्धि और अनत भोग-उपभोगलब्धि सप्राप्त होती है। जिससे जिनके अन्तराय कर्मका क्षय हो गया है ऐसे परमपुरुष अनत दानादि देनेको सपूर्ण समर्थ है, तथापि परमपुरुष पदगल-द्रव्यरूपसे इन दान आदि लब्धियोका प्रवृत्ति नहीं करते । मुख्यत तो उस लब्धि की सप्राप्ति भो आत्माको स्वरूपभूत है, क्योकि क्षायिकभावसे वह सप्राप्ति है, औदयिकभावसे नहीं, इसलिये आत्मस्वभाव स्वरूपभूत है, और जो अनत सामर्थ्य आत्मामे अनादिसे शक्तिरूपसे था वह व्यक्त होकर आत्मा निजस्वरूपमें आ सकता है, तद्रूप शुद्ध स्वच्छ भावसे एक स्वभावसे परिणमन करा सकता है, उसे अनत दानलब्धि कहना योग्य है। उसी प्रकार अनत आत्मसामर्थ्यकी सप्राप्तिमे किचित्मात्र वियोगका कारण नही रहा, इसलिये उसे अनन्त लाभलब्धि कहना योग्य है । और अनन्त आत्मसामर्थ्यकी सम्प्राप्ति सम्पूर्णरूपसे परमानन्दस्वरूपसे अनुभवमे आती है, उसमे भी किंचित्मात्र भी वियोगका कारण नही रहा, इसलिये अनन्त भोगोपभोगलब्धि कहना योग्य है, तथा अनन्त आत्मसामर्थ्यकी सम्प्राप्ति सम्पूर्णरूपसे होनेपर भी उस सामर्थ्यके अनुभवसे आत्मशक्ति थक जाये या उसका सामर्थ्य झेल न सके, वहन न कर सके अथवा उस सामथ्र्यको किसी प्रकारके देश-कालका असर होकर किचित्माय भी न्यूनाधिकता करा दे,' ऐसा कुछ भी नही रहा; उस स्वभावमे रहनेका सम्पूर्ण सामर्थ्य त्रिकाल सम्पूर्ण वलसहित रहनेवाला है, उसे अनन्त वीर्यलब्धि कहना योग्य है । क्षायिकभावकी दृष्टिसे देखते हुए उपर्युक्त अनुसार उस लब्धिका परम पुरुषको उपयोग है। फिर ये पांच लब्धियाँ देतविशेषसे समझानेके लिये भिन्न बतायी है, नही तो अनन्त वीर्यलब्धिमे भी उन पांचोका समावेश हो सकता है। आत्मा सम्पूर्ण वीर्यको सम्प्राप्त होनेसे इन पांचो लब्धियोका उपयोग पुद्गलद्रव्यरूपसे करे तो वैसा सामर्थ्य उसमे है, तथापि कृतकृत्य ऐसे परम पुरुषमे सम्पूर्ण वीतराग स्वभाव होनेसे उस उपयोगका इस कारणसे सभव नहीं है, और उपदेश आदिके दानरूपसे जो उस कृतकृत्य
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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