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________________ १७ वॉ वर्ष अज्ञान ॥४॥ विषयरूप अंकुरथी, टळे ज्ञान ने ध्यान । लेश मदिरापानथी, छाके ज्यम जे नव वाड विशुद्धथी, घरे शियल सुखदाई | भव तेनो लव पछी रहे, तत्त्ववचन ए भाई ॥५॥ सुन्दर शियल सुरतरु, मन वाणी ने देह । जे नरनारी सेवशे, अनुपम फळ ले तेह ॥६॥ पात्र विना वस्तु न रहे, पात्रे आत्मिक ज्ञान । पात्र थवा सेवो सदा, ब्रह्मचर्यं मतिमान ॥७॥ शिक्षापाठ ३५ : नवकारमंत्र नमो अरिहन्ताणं । नमो सिद्धाण | ८५ नमो आयरियाणं । नमो उवज्झायाणं । नमो लोए सव्वसाहूण | इन पवित्र वाक्योको निर्ग्रन्थप्रवचनमे नवकारमन्त्र, नमस्कारमन्त्र या पचपरमेष्ठीमन्त्र कहते है । अहंत भगवानके बारह गुण, सिद्ध भगवानके आठ गुण, आचार्यके छत्तीस गुण, उपाध्यायके पच्चीस गुण, और साधुके सत्ताईस गुण मिलकर एक सौ आठ गुण होते है । अँगूठेके बिना बाकीकी चार अँगुलियोकी बारह पोरें होती है, और इनसे इन गुणोका चिन्तन करनेकी योजना होनेसे बारहको नौसे गुणा करनेपर १०८ होते है । इसलिये नवकार कहनेमे ऐसा सूचन भी गर्भित मालूम होता है कि है भव्य | अपनी अंगुलियोकी पोरोसे नवकार मन्त्र नौ बार गिन । 'कार' शब्दका अर्थ 'करनेवाला' भी होता है । बारहको नौसे गुणा करनेपर जितने हो उतने गुणोंसे भरा हुआ मन्त्र, इस प्रकार नवकार मन्त्रके तौरपर इसका अर्थ हो सकता है । और पचपरमेष्ठो अर्थात इस सकल जगतमे पाँच वस्तुएँ परमोत्कृष्ट हैं, वे कौन-कौनसी ? तो कह बतायी कि अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु । इन्हें नमस्कार करनेका जो मन्त्र वह परमेष्ठीमन्त्र, और पांच परमेष्ठियोको एक साथ नमस्कार होनेसे 'पचपरमेष्ठीमन्त्र' ऐसा शब्द हुआ । यह मन्त्र अनादिसिद्ध माना जाता है, कारण कि पचपरमेष्ठी अनादिसिद्ध है अर्थात् ये पाँचो पात्र आदिरूप नही हैं। ये प्रवाहसे अनादि है, और उसके जपनेवाले भी अनादिसिद्ध है, इसलिये यह जाप भी अनादिसिद्ध ठहरता है । प्रश्न - इस पचपरमेष्ठीमन्त्रको परिपूर्ण जाननेसे मनुष्य उत्तम गति पाता है, ऐसा सत्पुरुष कहते हैं। इस विषय मे आपका क्या मत है ? जैसे लेश भर मदिरापानसे मनुष्य ज्ञान खोकर नशेसे उन्मत्त हो जाता है, वैसे थोडी-सी विषय-वासनासे ज्ञान और ध्यान नष्ट हो जाते हैं ॥४॥ बाsपूर्वक विशुद्ध एव सुखदायी ब्रह्मचर्य का पालन करता है, उसका भवन्रमण लवलेश रह जाता है; हे भाई । यह तत्त्ववचन है ॥५॥ जो जो नर-नारी मन-वचन-कायासे शीलरूप सुन्दर कल्पवृक्षका सेवन करेंगे वे अनुपम फलको पायेंगे ||६|| पात्र के बिना वस्तु नही रहती, पात्र में ही आत्मज्ञान होता है । हे मतिमान मनुष्यो । पात्र बननेके लिये सदा ब्रह्मचर्य का सेवन करो ||७||
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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