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________________ ३,१६ I Par श्रीमद राजचन्द्र ३११ 1 11 अनुक्रमे स्थम स्पर्शतो जी, पाम्यो क्षायकभाव सयम श्रेणी, फूलडे जी, पूजुंपक दिनिष्पाव "शुद्ध निरंजन अलख अगोचर, एहि ज साध्य सुहायो रे । ज्ञान क्रिया अवलंबी फरस्यो, अनुभव सिद्धि उपायो रे ॥ बंबई, पोष सुदी ३, रवि, १९४८ क राय सिद्धारय वंश विभूषण, त्रिशला राणी जायो रे । " अज अजरामर, सहजानंदी, ध्यानभुवनमां ध्यायो रे ।। " ه नागर सुख पामर नव-जाणे, ” बल्लभसुख न कुमारी रे।S ) ए अनुभव यण 'तेम ध्यानतणु सुख कोण जाणे नरनारी रे happ 19 बंबई, पौष सुदी ५, मगल, १९४८ ---३१२- रा क्षायिक चारित्रको याद करते हैं । जनक विदेहीकी बात ध्यानमे है । करसनदासका क्षेत्र ध्यानमे है । 12 312 7 बोधस्वरूपके यथायोग्य | बबई, पौष सुदी ७, गुरु, १९४८ ३१३ - 1750000 ॐ - ज्ञानी आत्माको देखते है. और वैसे होते हैं, ) 3, 73 आपकी स्थिति ध्यानमे है | आपकी इच्छा भी ध्यानमे है । आपने गुरुके अनुग्रहवाली जो बात / लिखी हैं वह भी सच है | कर्मका उदय भोगना पडता है यह भी सच है | आप समय-समय पर अतिशय खेदको प्राप्त हो जाते है, यह भी जानते हैं। आपको वियोगका असह्य सन्ताप रहता है यह भी जानते - । बहुत प्रकारसे सत्सगमे रहने योग्य है, ऐसा मानते है, तथापि अभी तो यो सहन करना योग्य माना है। चाहे जैसे देशकालमें यथायोग्य रहना, , और यथायोग्य रहनेकी इच्छा ही किये जाना यह उपदेश है । आप अपने मनको चिन्ता लिख भेजे तो भी हमे आपपर खेद नहीं होगा । ज्ञानी अन्यथा नही करते, ऐसा करना उन्हे नही सूझता, ऐसी स्थितिमे दूसरे उपायकी इच्छा भी न करें ऐसी विनती है । T1 1 P कोई इस प्रकारका उदय है कि अपूर्व - वीतरागता के होनेपर भी हम व्यापार सम्बन्धी कुछ प्रवृत्ति कर सकते है, तथा खाने-पीने आदि की आदिको अन्य प्रवृत्तियाँ भी बड़ी मुश्किलसे कर पाते हैं। मन कही भी विराम नही पाता, प्राय. यहाँ किसीके समागमकी वह इच्छा नही करता । कुछ लिखा नहीं जा सकता । अधिक परमार्थवाक्य कहनेकी इच्छा नहीं होती । किसीके द्वारा पूछे गये प्रश्न के उत्तर जानते हुए भी "लिख नही सकते । चित्तका भी अधिक सग नहीं है, और आत्मा आत्मआवमें रहता है । 1 H ~~~ 5125) Goleme १ भावार्य - शुद्ध = निरावरण, निरजन = रागद्वेपरूपी मैलसे रहित अलख = अलक्ष्य और अगोचर इन्द्रियाततः परमात्मा स्वरूपानन्द विलासी एक परभाव उदासी है । यहीं हमे साव्यरूपसे सुहायां है । हे आत्मन् । सम्यग्ज्ञान एव सम्यक्तियाका अवलम्बन लेकरुं स्वरूपमें स्थिर होने के अपूर्व आनन्दका अनुभव करना ही मोक्षसिद्धिका उपाय है । २. भावार्थ–त्रिशला रानीसे उत्पन्न, राजा सिद्धार्थके वशविभूषण) जन्म जरा मरणरहित एव-सह ---- f ,, स्वरूपानन्दो वीर परमात्माका घ्यानरूप भावभुवनेमे ध्यान किया 1. - "३. भावायं --- पामर ग्रामीण व्यक्ति नगरके सुखको नही जानता है, और कुमारी पतिके, सुखको नही जानती ६ । इसी तरह अनुभवके बिना ध्यानके सुखको भला कौनसा स्त्री-पुरुष जानता है ? गिि
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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