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________________ २२८ श्रीमद राजचन्द्र इच्छा नही है, तथा उनका उपयोग करनेमे उदासीनता रहती है । उसमे भी अभी तो अधिक ही रहती हैं | इसलिये इस ज्ञानके सम्बन्धमे चित्तकी स्वस्थता से विचार करके पूछे हुए प्रश्नो के विषयमे लिखूँगा अथवा समागममे बताऊँगा । जो प्राणी ऐसे प्रश्नोके उत्तर पाकर आनद मानते हैं वे मोहाधीन हैं, और वे परमार्थंके पात्र होने दुर्लभ है ऐसी मान्यता है। इसलिये वैसे प्रसगमे आना भी नही भाता, परन्तु परमार्थ हेतुसे प्रवृत्ति करनी पडेगी तो किसी प्रसगसे करूँगा । इच्छा तो नही होती । आपका समागम अधिकतासे चाहता हूँ । उपाधिमे यह एक अच्छी विश्राति है । कुशलता है, हूँ वि० रायचदके प्रणाम वाणिया, द्वितीय भादो सुदी ८, रवि, १९४६ दोनो भाइयो, देहधारीको विडबनाका होना तो एक धर्म है । उसमे खेद करके आत्मविस्मरण क्यो करना ? धर्मभक्तियुक्त आपसे ऐसी प्रयाचना करनेका योग मात्र पूर्वकर्मने दिया है । इसमे आत्मेच्छा कपित है । निरुपायताके आगे सहनशीलता ही सुखदायक है । t 1. इस क्षेत्रमे इस कालमे इस देहधारीका जन्म होना योग्य न था । यद्यपि सब क्षेत्रोमे जन्म लेने की इच्छा उसने रोक ही दी है, तथापि प्राप्त हुए जन्मके लिये शोक प्रदर्शित करनेके लिये ऐसा रुदनवाक्य लिखा है । किसी भी प्रकारसे विदेही दशाके बिनाका, यथायोग्य जीवन्मुक्तदशा रहित और यथायोग्य निग्रंथदशा रहित एक क्षणका जीवन भी देखना जीवको सुलभ नही लगता तो फिर बाकी रही हुई अधिक आयु कैसे बीतेगी यह विडंबना आत्मेच्छा की है | यथायोग्य दशाका अभी मुमुक्षु हूँ । कितनी तो प्राप्त हुई है । तथापि सम्पूर्ण प्राप्त हुए बिना यह जीव शाति प्राप्त करे ऐसी दशा प्रतीत नही होती । एक पर राग और एक पर द्वेष ऐसी स्थिति एक रोम भी उसे प्रिय नही है । अधिक क्या कहे ? परके परमार्थके सिवाय की तो देह ही नही भाती । आत्मकल्याणमे प्रवृत्ति कीजियेगा । वि० रायचदके यथायोग्य १३४ १३५ ववाणिया, द्वितीय भादो सुदी १४, रवि, १९४६ धर्मेच्छुक भाइयो, मुमुक्षुताके अशोसे गृहीत हुआ आपका हृदय परम सन्तोष देता है । अनादिकालका परिभ्रमण अब समाप्तिको प्राप्त हो ऐसी अभिलाषा, यह भी एक कल्याण ही है । कोई ऐसा यथायोग्य समय आ जायेगा कि जब इच्छित वस्तुकी प्राप्ति हो जायेगी । निरन्तर वृत्तियाँ लिखते रहियेगा । अभिलाषाको उत्तेजन देते रहियेगा । और नीचेकी धर्मंकथाका श्रवण किया होगा तथापि पुन पुन उसका स्मरण कीजियेगा । सम्यकूदशाके पाँच लक्षण है : शम सवेग निर्वेद आस्था अनुकपा
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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