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________________ २०८ ज्ञानका उद्धार ご - श्रुत ज्ञानका उदय करना चाहिये । योगसम्बन्धी ग्रन्थ | त्यागसम्बन्धी ग्रन्थ | प्रक्रियासम्बन्धी ग्रन्थ | अध्यात्मसम्बन्धी ग्रन्थ | धर्मसम्बन्धी ग्रन्थ | उपदेश ग्रन्थ । आख्यान ग्रन्थ । द्रव्यानुयोगी ग्रन्थ | उसका क्रम और उदय करना चाहिये । निर्ग्रथधर्मं । आचार्य | उपाध्याय । मुनि । गृहस्थ । श्रीमद राजचन्द्र मतमतातर । उसका स्वरूप | उसको समझाना | ( इत्यादि विभाग करने चाहिये । ) गच्छ । प्रवचन । द्रव्यलिगी । अन्य दर्शन सम्बन्ध | ( इन सबकी योजना करनी चाहिये । ) मार्गकी शैली | जीवनका बिताना । उद्योत । ( यह विचारणा । ) 1 ९१ बंबई, कार्तिक, १९४६ वह पवित्र दर्शन होने के बाद चाहे जैसा वर्तन हो, परन्तु उसे तीव्र बधन नही है, अनन्त ससार नही है, सोलह भव नही है, अभ्यतर दुख नही है. शकाका निमित्त नही है, अतरग मोहिनी नही है, सत् सत् निरुपम, सर्वोत्तम, शुक्ल, शीतल, अमृतमय दर्शनज्ञान, सम्यक् ज्योतिर्मय, चिरकाल आनन्दकी प्राप्ति, अद्भुत सत्स्वरूपदर्शिताकी बलिहारी है । जहाँ मतभेद नही है, जहाँ शका, कखा, वितिगिच्छा, मूढदृष्टि इनमेसे कुछ भी नहीं है । जो है उसे कलम लिख नही सकती, वचन कह नही सकता, और मन जिसका मनन नही कर सकता । है वह । ९२ बबई, कार्तिक, १९४६ _सब दर्शनोसे उच्च गति है । परतु ज्ञानियोने मोक्षका मार्ग उन शब्दोमे स्पष्ट नही बताया है, गौणतासे रखा है। उस गोणताका सर्वोत्तम तत्त्व यह मालूम होता है निश्चय, निर्ग्रथ ज्ञानी गुरुकी प्राप्ति, उसकी आज्ञाका आराधन, सदैव उसके पास रहना, अथवा सत्सगकी प्राप्तिमे रहना, आत्मदर्शिता तब प्राप्त होगी ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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